जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिका / Jankriti International Magazine( बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक)
ISSN 2454-2725
जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिक
( बाबा साहब डॉ. भीमराव
डायरी के पन्नों पर –
रमणणका गुप्ता का कणिरूप िैणिध्यपूणण है, णजसमें कभी िे सामाणजक पररितणन की लड़ाइ लड़ती हुइ अम अदमी के पक्ष में खड़ी णदखतीं हैं तो कभी िगण और िणण भेदभाि के णखलाफ अिाज ईठाती संघर्णरत णदखती हैं । आन सभी रूपों से ऄलग संग्रह,‘ तुम कौन’‘ भािनािादी कणिताओं’ का संग्रह है, कणिता तो कणि की भािनाओं का ही प्रणतणबम्ब होता है । किणयत्री ने आसमें ऄपने जीिन के ऄनुभिों को समेटने की कोणिि की है । आसका प्रमाण आस संग्रह की कणितायें तो है ही साथ ही यह बात भी णक आस संग्रह की सम्पूणण कणिताओं को ईन्होंने प्रेरणा के असंगो और प्रसंगों को समणपणत णकया है । जीिन में प्रेररत करने िाली हर िस्तु-भाि ईन्हें णप्रय है क्योंणक यह प्रेरणा ही हमेिा एक नइ राह णदखाती है । प्रेररत होना भी तो तभी संभि है जब मन की दृढ़ आच्छािणि जीणित हो, मन में अगे बढ़ने की ललक लगातार बरक़रार हो, अिाओं ने साथ न छोड़ा हो और रमणणका गुप्ता में यह आच्छािणि-ललक-अिाएं स्पष्ट ही देखी जा सकती है, ईनकी कणिताओं के माध्यम से । रमणणका गुप्ता की णििेर्ता है णक िे ऄपनी कणिताओं को णिणभन्न णिर्यों के ऄनुसार चुनकर ऄलग-ऄलग संकलनों में प्रस्तुत करती हैं । आनकी कणितायें जीिन की व्यिहाररकताओं को ऄणधक से ऄणधक स्पेस देती हैं । लेणकन जीिन में कल्पनाए न हो ससा भी तो संभि नहीं । कह सकते हैं णक कल्पनाओं और व्यािहाररकताओं का णमला-जुला रूप ही आनकी कणिताओं की णििेर्ता है, लेणकन कहीं भी ऄणतिाद नहीं । बलदेि पाण्डेय आस संग्रह की सम्पादकीय में कहते हैं- ‚ न तो आनमें संत कणियों की तरह जीिन के प्रणत िीतराग का भाि है न ईत्तर अधुणनकतािादी कणियों की तरह ईचाट का भाि है । िे तो जीिन में ही जीिन का णनस्तार ढूढतीं हैं ।‛ आनकी कणितायें जीिन की णिणभन्न ऄिस्था-बोधों को व्यि करती चलती हैं ।‘ ऄब तक आनकी लगभग चौदह कणिता संग्रह प्रकाणित हो चुकी हैं और कु छ प्रकािनाधीन हैं’ । संग्रह की पहली चार कणितायें‘ िायद कणिता मेरे गभण में अ गइ है’,‘ आतनी णजजीणिर्ा’,‘ कणिता मुझे खोजने णफरने लगी है’, और‘ मृत्युबोध’ किणयत्री के रचना-प्रणिया को ऄणभव्यि करती हैं ।‘ िायद कणिता मेरे गभण में अ गइ है’, आस सच्चाइ को व्यि करती है णक कणिता का जन्म जीिन की जलती सच्चाआयों से होता है, कणिता को गढ़ने के णलए णदमागी व्यायाम की जरुरत नहीं, ईसे तो जीिन का ऄनुभि ही गढ़ जाते हैं । रचनािीलता के प्रणत किणयत्री का कतणव्य-बोध ही ईन्हें रचना-रत रहने के णलए प्रेररत और ईद्वेणलत करता है, िह हर जगह, हर-एक िस्तु में कणिता की तलाि करती णफरती हैं, जो णक ईनको णमलता भी है । आस प्रणिया में कभी िो कणिता को खोजती हैं तो कभी कणिता ईनको ही खोजती-णफरती है और एक िि ससा अता है जब कणिता खुद-ब-खुद ईनकी डायरी के पन्नों पर ईतर अती है--
‚ तब कणिता मैं नहीं णलखती होती णकरणें णलख जातीं खुद-ब-खुद झुलसती सच्चाआया
जीने की ितें
जो चमकता है िह सोना भले न हो
जलता जरुर है िह
ज्िलनिील है
एक सत्य यह!‛ 2( ईपरोि, पृष्ठ संख्या
‘ आतनी णजजीणिर्ा’ कणिता भी ईनके सृजन णजजीणिर्ा से ओतप्रोत है । ये भािनाए ही ई बंद अखों से भी रौिनी की लकीर खींचने कणठन से कणठन पररणस्थणतयों में भी णिचणल करती हैं । ऄथाणत ईन्हें कभी णिचणलत होन किणयत्री का कहना है –‘ मेरी भािनाएं मुझे
और –
‚ रात का स्याही लेकर मैं
सुबह का गीत णलख लेती ह ।।’’ 3(
‚ आसणलए मैं ऄन्दर ही ऄन्दर
नइ रौिनी से सराबोर हो ईठी ह
जो ऄन्धेरे में / ऄके लेपन के चमग
खदेड़ देती है / छतों के कोनों से
भगा देती है / रोिनदानों के बाहर
ऄब मनुष्य जीिन के साथ-साथ कणिता के कणिता के सामने णिकट संकट खड़ा कर ण बनाकर । कणिता के आस संकट के सम्बंध में का सामना कर रही है, िह न ऄचानक अय सभ्यता के णिकास के साथ समाज से कणि ऄंतरंगता िमिः कम हुइ है ।‛ आस ऄंतरंगत णहंदी में णजस कणिता का बोलबाला है, िह
Vol. 2, issue 14, April 2016. वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016.
Vol. 2, issue 14, April 2016.