Jankriti International Magazine vol1, issue 14, April 2016 | Page 52
जनकृति अंिरराष्ट्रीय पतिका/Jankriti International Magazine
ISSN 2454-2725
(बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयिं ी पर समतपिि अंक)
ये कलाम समकालीन जीवन के पररदृश्य को शीशे की तरह साफ़ कर देते हैं. वतथमान समय की जवसंगजतयों से
पररजचत कराते हैं. आन गद्यात्मक लेखों के जवषय राजनीजत ('फलस्तीन एक टुकडा ज़मीन का नाम', 'वोट का
खेल', 'वामपंजथयों की भल
ू ', 'तक
ु ी ऄब वह तक
ु ी नहीं', 'देश की बातें') ऄतं राथष्ट्रीय सम्बन्ध ('भारत और
बाग्ं लादेश का भजवष्ट्य') स्त्री और जपतृसत्ता ('परुु ष को लेकर जस्त्रयों की अपसी छीना झपटी और नोंच-खरोच’,
'जस्त्रयों को अाँखें भी ढंककर रखना होगा', 'नारी जवद्वेष का कारण मानजसक जवकार नहीं कारण है परुु षतंत्र' ) प्रेम,
धमथ ('शांजतजप्रय मसु लमान हैं या नहीं'), शरणाथी, अतंकवाद, भजू म और सीमा जववाद, दहेज़ ('दहेज़ की
ज्वाला') बाल जववाह, वेश्यावृजत, वामपंथ, मक्त
ु जचंतन ('वाक् स्वाधीनता का ऄथथ क्या आतना कजिन है ?')
नारीवाद ('ग्लोररया स्टाआनेम',) स्वतन्त्रता ('पासपोटथ का नाम है स्वाधीनता'), व्यजक्तगत जीवन ('इद के वे जदन',
'पृथ्वी के पथ पर', 'ऄप्रत्याजशत', 'कै सा है मेरा जीवन', 'क्यों ऄसमथथ ह'ाँ , 'ममता से अशा थी, ऄब अज नहीं',
'एक व्यजक्तगत जचट्ठी प्रधानमत्रं ी के नाम') अजद जवषयों से जड़ु े हुए हैं. आन लेखों से वतथमान में फै ली ऄराजकता,
फासीवादी राजनीजत और शासन, कें द्रीकृ त ऄतं राथष्ट्रीय शजक्त को देखा जा सकता है. साथ ही तसलीमा के ये लेख
मीजडया की जदशाहीनता और ईसके दष्ट्ु प्रभावों की भी कल्पना करवाते हैं.
सभी लेख ऄपने-ऄपने स्तर पर प्रभाव छोड़ते हैं जकन्तु 'जबल्ली की कहानी' और 'ऄप्रत्याजशत' लेख व्यगं
और भावक
ु ता को नये तरीके से प्रस्ततु करते हैं. पहला लेख व्यंग्यात्मक रूप में जपतृसत्ता और मनष्ट्ु य की
रूजिवाजदता पर चोट करता जदखता है. दसू रा लेख तसलीमा की एक पािक के ब्लॉग को अधार बनाकर जलखा
गया है जो ऄत्यतं रृदयस्पशी रूप में एक पािक की अशाओ ं को जाजहर करता है और लेजखका की
हौसलाऄफजाइ भी करता है. यह लेख तसलीमा के जलए सख
ू े में एक 'मेघ' के रूप में और वह पािक 'मेघकन्या'
साजबत होती है. समाजवाद की ऄवधारणा में जवश्वास करने वाली तसलीमा एक यटू ोजपया (काल्पजनक लोक)
जरूर बनाती हैं पर यह भी जानती हैं जक यह लक्ष्य प्राप्त करना जकतना मजु श्कल है और ईनके जीजवत रहते यह
शायद संभव न हो. यह कहकर वह जकसी नकारात्मक मंशा को नहीं बजल्क वतथमान समय की समस्याओ ं के
जजटल जाल को ईभारना चाह ती हैं. आस जाल को जजतनी जल्दी काट जदया जाएगा, ईतनी ही जल्दी समान और
शांजतपणू थ समाज प्राप्त जकया जा सके गा. आसकी जड़ में वह धमथ की राजनीजत को देखती हैं जजसका जशकार भारत
या बगं लादेश ही नहीं समस्त जवश्व है. ईनका यह भी मानना है जक समाज के दसू रे छोर पर खड़ी स्त्री को मख्ु यधारा
में लाकर भी आस समस्या को कुछ हद तक सरल जकया जा सकता है. आन लेखों में, जपतृसत्तात्मक राजनीजत के बीच
औरत को एकजटु होने का पयाम भी है. ऄन्यथा 'जमसोजकज्म' की जशकार 'औरत की जबना मरे मजु क्त नहीं है'.
तसलीमा ईत्पीड़क समाज से पयाथप्त दरू ी बनाने की सलाह देती हैं. आस बात की अलोचना आस रूप में की जा
सकती है जक आसमें ईनके पलायनवादी होने का संदहे हो ईिता है. जैसे आस कथन में, 'पृथ्वी पर स्त्री ही एक मात्र
एसा जीव है जो ऄत्यचारी बलात्कारी, या खनू ी के साथ वशीभतू होकर रहता है. बाकी सब प्राणी ऄपने ईत्पीड़क
से पयाथप्त दरू ी बनाकर रहते हैं.' जकन्त,ु स्वस्थ मानजसकता के ऄभाव में, जबजक जस्त्रयों को परू ी तरह से 'ब्लैक
अईट' जकया जा रहा है, ऐसे में जकसी भी सवं दे नशील व्यजक्त के मन में ऐसी बात अ सकती है जो पलायन नहीं
बजल्क स्वरक्षण के जलए ऄजत अवश्यक है.
Vol.2, issue 14, April 2016.
वषष 2, अंक 14, अप्रैल 2016.
जनकृति अंिरराष्ट्रीय पतिका/Jankriti International Magazine
ISSN 2454-2725
(बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयिं ी पर समतपिि अंक)
रोजहगं ा, तजमल, ऄफगान, सोमाली शरणाथी के रूप में ऄन्य देशों से जवस्थाजपत हुए लोगों और शरणाजथथयों
की भीषण समस्या से भारत जझू रहा है. तसलीमा ने आसके जलए ईत्तरदायी कारणों को दढंू ने का प्रयास जकया है.
मीजडया का बदला स्वरुप जो जकस तरह से नैजतक और क्षेत्रगत ईद्देश्यों से भटक गया है और आसने मनष्ट्ु य को सहीगलत का फै सला करने की शजक्त को ही जकस हद तक 'जहप्नोटाआज़' कर जलया है, यह लेखों से स्पष्ट हो जाता है.
पररणामस्वरूप मनष्ट्ु य ऄपना जववेक ही खो बैिा है. बाजारवाद और पंजू ीवाद का जशकार बने देशों की दगु जथ त को
भी आन लेखों में देखा जा सकता है.
व्यजक्तगत जीवन के कइ प्रसंगों के माध्यम से तसलीमा ने यह समझाने का प्रयास जकया जक अज के समय में
सच बोलने वाले के जवरुद्ध समाज जकस हद तक जा सकता है. आसी सन्दभथ में सरकारों से रखी गयी ऄपेक्षायें जकस
तरह से जनराशा में बदल गयीं, यह प्रधानमत्रं ी को जलखे पत्र में देखा जा सकता है. आस लेख को पिने के बाद एक
लेखक को देश जवहीन बना देने में राजनीजत जकतनी बड़ी भजू मका जनभा सकती है यह समझ पाना कजिन नहीं रह
जाता.
दसू री तरफ हैं 'पद्य' जजनके माध्यम से तसलीमा ने झिू े प्रेम की अलोचना की है, आस पर व्यंग्यात्मक दृजष्ट से
जवचार जकया है. जस्त्रयों को यह समझाने का प्रयास जकया गया है जक ईन्हें परुु ष द्वारा जकये जा रहे छल को समझना
होगा ऄन्यथा ईनकी मौत जनजित है. पर कोमल रृदयी स्त्री बार-बार प्रेममय शब्दों के जाल में फंसकर ऄपने
जनणथय से जफर ज ाती है और ऄंततः ऄपनी बजु द्ध गवां बैिती है और जीवन, जगत, शरीर सब 'बेहद िंढे, बफथ से भी
ज्यादा' िन्डे हो जाते हैं. दरऄसल यहााँ तसलीमा का ईद्देश्य ऄत्यंत भावक
ु स्त्री को सचेत करना है. प्रेम के प्रजत
शरीर की चाह और मन की चाह तो सच है पर आस चाह को कोइ परुु ष नहीं बजल्क एक मनष्ट्ु य ही परू ा कर सकता है
जो 'आतना कुछ जमलता है, जमलता नहीं आन्सान' में साफ़ साफ देखी जा सकती है. यद्यजप तसलीमा मानती हैं जक
प्रेम स्त्री को ऄधं ा, बहरा, बेवकूफ और मोटी बजु द्ध वाला बना देता है जकन्तु आसके साथ ही ईनकी कजवताओ ं में प्रेम
के प्रजत ललक भी जदखती है. जो यह प्रश्न ईत्पन्न करता है जक तसलीमा प्रेम के पक्ष में हैं या जवपक्ष में ? यह दोहरा
दृजष्टकोण अलोचना का जवषय हो सकता है. दरऄसल यह दोहरी दृजष्ट तसलीमा की एक तरफ 'प्लटू ोजनक प्रेम' में
जवश्वास और दसू री तरफ स्त्री को िगने के जलए प्रेम को जररया बनाने की प्रवृजत का जवरोध करती है.
'कजवता तो स्वयं अने वाली चीज है वह जलखने की चीज नहीं है’ आस बात को जानते हुए तसलीमा ऄपनी
ऄतं मथन से ईपजी कजवताओ ं में औरतों को चेतावनी देती हैं संभल जाने की, मख
ू तथ ा से बचने की और तकथ पणू थ दृजष्ट
ऄपनाने की. वे ऄपील करती हैं परुु ष जाजत से, समाज से 'मझु े स्त्री कहकर पक
ु ारो, मत कहो जक मैं मनष्ट्ु य ह'ाँ स्त्री
कोइ नकारात्मक शब्द नहीं बजल्क 'परुु ष एक नकारात्मक शब्द है'. तसलीमा जस्त्रयों और परुु षों दोनों को
'जस्त्रयोजचत' और 'परुु षोजचत' की छजव से बाहर जनकलना चाहती हैं जजससे सामाजजक संबंधों में एक जनजिंतता
और स्थाजयत्व अ सके 'जनजिन्ता कौन नहीं चाहता !
मैं भी तो चाहती ह,ाँ तमु भी.’
Vol.2, issue 14, April 2016.
वषष 2, अंक 14, अप्रैल 2016.