Jankriti International Magazine vol1, issue 14, April 2016 | Page 46
जनकृति अंिरराष्ट्रीय पतिका/Jankriti International Magazine
ISSN 2454-2725
(बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक)
ISSN 2454-2725
(बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक)
''ये क्षण
वनणाभयक भी नहीं ह ैं
इवतहास की ितभल
ु गवत
बदला हआ न्यवू क्लयस
बाहरी आवबभट में
घमू ता इलेक्ट्रोन
बाह्य उजाभस्रोत से
वकया जाना है विलग
बहत िभु वदखते हैं
विलग होने का
आभास देने िाले वदिस
वदख जाते हैं
जल से भरे पात्र प्रात:
कल्याणकारी नीलकंठ
उड़-उड़ बैठते हैं
टेलीिोन के तारों पर
................
िटने लगती हैं
परमाणु भवठ् टयां
िै ल जाती हैं दरू तक
धरा पर रे वडयोधवमभता।''
जरूरी सिाल है वक मौजदू ा कविता में पेिकि की समस्या को वकस तारीख से जोड़ कर हल वकया जाय। वहन्दी की
कविता के साथ यह समस्या बड़ी ही गहराई से जड़ु ी हई है। जब तक इस का कोई साि-सुथरा हल नहीं वनकाला जाय
तब तक कविता पाठक के जेहन का वहस्सा बनने से गरु े ज़ करती रहेगी। बात चाहे वकतनी ही मजबतू क्यों न हो उसे पेि
करने का ढंग ही उसे तारीख का वहस्सा बना पायेगी। इसवलए बात और पेिकि के तालमेल की तरि वजतना ज्यादा
ध्यान वदया जायेगा, कविता उतनी ही व्यापक और उतनी ही गहराई तक अपना असर करे गी। इस काम के वलए जैसा
वक िै ज़ कहते हैं, हमें भी कुछ करना चावहये'' आज इक हिभ क़ो ढ़ंढता विरता है ख़याल
मद-भरा हफ़भ कोई ज़हर भरा हिभ क़ोई
वदलनिीं हफ़भ कोई कहर भरा हफ़भ कोई
हफ़े -उल्फ़त कोई वदलदारे नज़र हो जैसे
वजससे वमलती हो नज़र बोस:-ए-लब की सरू त
इतना रौिन वक सरे -मौज:-ए-ज़र हो जैसे
सोहबते-यार में आग़ाजे-तरब की सरू त
हफ़े -नफ़रत कोई िमिीरे -ग़ज़ब हो जैसे
ता-अबद िहरे -वसतम वजससे तबह हो जायें
इतना तारीक के : कमिान की िब हो जैसे
लब पे लाऊं तो मेरे होंठ वसयाह हो जायें ''
( सारे सख
ु न हमारे )
हजार बातें कही जा सकती हैं और विर भी हजार कहने को रह ही जाती हैं बाकी। इतनी सारी बातों के बाद क्या रह
जाता है बाकी कहने को वक यह होना चावहये था सो नहीं हआ या ऐसा हो सकता था, सो नहीं हआ लेवकन इस तरह
की बात करने की मेरी आदत जो नहीं है। मैं तो जो है उसे ही समझ रहा ह।ं मैं तो यही कहगं ा वक जो नहीं है, िह हो,
तावक जो है उसे और ज्यादा पख्ु ता और खबू सरू त बनाया जा सके । पर यह तो तब होगा जब इसे करने िाला समझेगा
और विर आगे के सिर की दश्वु ाररयों से दो-चार होगा। लेवकन, महज अपने अनुभि ही इसमें परू ी तरह से काम नहीं
आते, इसमें परोक्ष अनुभिों का जोड़ होना जरूरी हैं अन्यथा यह जान पाना बहत ही कवठन जो जाता है वक अब तक
का सिर वकन पेचीदवगयों और मोड़ों से होता हआ आपकी सोच का अिचेतन वहस्सा बना है। िैलेंद्र चौहान के यहां
इसी बात को बार बार देखने की जरूरत है। तमाम कविताएं अपने परू े लब्बोलआ
ु ब के साथ, पसीने के स्िभाि के साथ
अपने आपको जोड़ने का प्रयास करती नज़र आती हैं और बाजिि ऐसा होता भी है लेवकन जहां तक सरोकारों को
पररभावषत करने का सिाल है, अक्सर सिाल ही बना रहता है। कविताएं अपने कहन में परू े वमजाज के साथ मानिीय
सरोकारों से जड़ु ी होने के बािजदू अपने वलबास में इन सरोकारों से विलग ही रहती है। यही कविता का अपना भीतरी
अतं र-विरोध है और यही कवि का भी। और यही अतं र-विरोध पाठक और कवि के बीच भी साि साि देखा जा
सकता है। इसका एक मात्र कारण है-उत्तर भारत की काव्य परंपरा से कवि का सीधे राबता कायम नहीं होना है। यह एक
Vol.2, issue 14, April 2016.
जनकृति अंिरराष्ट्रीय पतिका/Jankriti International Magazine
वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016.
बहरहाल, जैसा वक मैंने िरू
ु में कहा और विर दोहरा रहा हं वक कविता समझना मवु ककल काम है पर थोड़ी कोविि के
बाद बवु ि समझ की वदिा में आगे बढ़ने लग ही जाती है। उसी तरह सृजन एक कवठन काम है और कवठन इसवलए वक
यह वजम्मेदारी का काम है। इसके वलए गोकी की इस बात के साथ ही आगे बढ़ना पड़ेगा। िे कहते हैं'' मानि श्रम तथा सृजनात्मकता का इवतहास मानि इवतहास से कहीं ज्यादा वदलचस्प और महत्िपूणभ है। मनष्ु य एक
सौ बरस का होने के पहले ही मर जाता है लेवकन उसकी कृ वतयां ितावब्दयों तक अमर रहती हैं। विज्ञान की अभतू पिू भ
उपलवब्धयों तथा उसकी द्रुत प्रगवत का यही कारण है वक िैज्ञावनक अपने क्षेत्र वििेष के विकास के इवतहास की
जानकारी रखते हैं। विज्ञान तथा सावहत्य में बहत कुछ समान है-दोनों में प्रेक्षण, तल
ु ना तथा अध्ययन प्रमख
ु भवू मका
अदा करते हैं। लेखक तथा िैज्ञावनक दोनों में कल्पना िवि तथा अन्तर्दभवि का होना आिकयक है।'' ( मैंने वलखना कै से
सीखा )
यह कै से होता है और इसे कै से सीखा जाता है, इस मद्दु े को िैलेंद्र चौहान की आगे की कविताओ ं पर बात करते िि
चचाभ के कें द्र में लायेंगे, तब तक के वलए इस बातचीत को मल्ु तिी वकया जाता है।
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Vol.2, issue 14, April 2016.
वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016.