Jankriti International Magazine vol1, issue 14, April 2016 | Page 42

जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिका / Jankriti International Magazine( बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक)
ISSN 2454-2725
जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिक
( बाबा साहब डॉ. भीमराव अ
सामावजक हैवसयत क्या है । उनकी मानवसक बुनािट के बारे में भी अंदाजा हो ही जाता है और अपने सृजन के बारे में उनकी अपनी राय तक भी पह ंचने का रास्ता यहीं से वमल सकता है । मसलन, इस बंद में से कविता के ताल्लुक से तीन अिधारणाएं सामने आती है-सड़क पर चलते हए चौकस रहना, कविता के बारे में गाहे-ब-गाहे सोचना और ऐसा करने से ग़फ़लत का होना लाजमी है ।
उस्तरेबाज़ अच्छी कविता है जो पाठक को लगातार इस बात का अहसास करिाती रहती है वक कवि की कल्पना िवि वकतनी ऊं ची उड़ान भरती है, इतनी ऊं ची वक उसे अपने िजूद को खतरे में डालने तक की वस्थवत में ला डालती है । एक तरि कल्पना की उड़ान, जो एक आलमी हकीकत है और वजस माहौल में कवि खड़ा है िह देिज हकीकत-
इन दोनो के बीच सामंजस्य बैठाने के िे र में जा टकराता है एक ट्रक से और जब हौि आता है तो एक विचारधारा अपना काम करना िुरू करती है जो कवि के अंतर-विरोधों का साि-सुथरा बयावनया है, जरा देखें, ट्रक से टकराने के
तुरंत बाद का बयान-
'' क्यों बीच सड़क खड़ा कर वदया ट्रक इस बैनचो, हरामी ड्राइवर ने जावहल, गंवार स्साला '' और अब ववचारधारा का दबाव । कवव कहता है- '' मैं तो कामरेड ह ं ऐसे गुस्सा नहीं होना श्रम-जीवी वगष पर ददष था हल्का पर बहुत बेमज़ा एक हथेली गूमड़े के स्पर्ष से संवेवदत एक वहलती हुई बेतरतीब ''
ये दो बंद कवि की िगीय वस्थवत को भी िाजे कर देते हैं और उसके सरोकारों को भी । और विर आगे के बंद नाई के उस्तरे और व्हाइट हाउस की कारस्तावनयों के आसपास बुने गए हैं । पूरी कविता पढ़ने पर एक सहज सिाल ऊभरता है वक इस तरह की तुलनात्मक बुनािट में व्हाइट हाउस और नाई की दुकान की हलचल के साथ साथ कविता के कच्ची सामग्री तो तलािी जा सकती है लेवकन इस बात का क्या जिाब है वक व्हाइट हाउस की कारस्तानी की िजह से िह वदन दूर नहीं जब नाई का हनर वछन जायेगा । और असल बात तो यही है वक, यहीं आकर होती है ग़फ़लत और यहीं पर
चौकस रहने की जरूरत है । अन्यथा कविता ही बनेगी जब की हमें तो इन कविताओं में उस अदद आदमी की तलाि है जो कविता सुनता सुनता बाल भी काटता रहे और िह ड्राइिर, जो बैनचौ, हरामी, जावहल और स्साला गंिार है,
आपकी कविता सुनने की उतािली में ट्रक को गलत जगह खड़ा कर दे । कवि अगर कामरेड है तो उससे इस तरह की उम्मीद कोई बेजा हरकत नहीं होगी । कहने का तात्पयभ यह वक सृजनकताभ का कविता में दावखल हो जाना, मतलब ईख
का दारू में बदल जाना होता है, कवि को तो ब न ही दारू में ईख ।
चौहान इतने ज्यादा सहज है वक उनकी यह स को पूरा करने की मजबूरी बन जाती लगती ह मामला मौज़ूदा दौर की समकालीन(?) कवित वजसका वजि मैंने ऊपर वकया है । मतलब क कौन, कब, वकस तरह एक दूसरे पर हािी हो ज उसके अिचेतन को चेतनता में बदलने की अव
वमसाल के तौर पर इस बात को चार बेहतर क पिाताप, तीसरी, मारे गये हैं िो और चौथी सहजता और सामावजक पसोपेि में से कु दरत पौधों से भरी / देखना चाहता ह ं मैं / यह धरती ''
अपने सामावजक पसोपेि में इवच्छत मुकाम ह वलहाज से, कभी कभी भूल ही जाता है वक स
वजसने इस जगत को इतना खूबसूरत बनाया ह कर खड़ा रहता है, जो इसको बदसूरत बनाने म
वजन्स बनाते जा रहे हैं । इस संघषभ में भागीदारी है । इस तरह कु दरत की तरि विर से लौटने क
इसके वखलाि उठ खड़े होने की वहम्मत नहीं र विर इसे ही समझने की कोविि में लगा हआ
'' बीहड़ खाइयां पररदें पी पानी तलहटी का आ बैठते नीम नीम की टहवनयों पर बड़ी मुवककल से हम खाइयों के भय से पीछा छु ड़ाते वकलौल करते ये पररदें हम को वचढ़ाते ''( कामना) '' यद्यवप तुम अपने जैसे ही वकसी व्यवि से कहना चाहते हो िह पर तुम्हें भय है
Vol. 2, issue 14, April 2016. वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016. Vol. 2, issue 14, April 2016.