Jankriti International Magazine vol1, issue 14, April 2016 | Page 41

जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिका / Jankriti International Magazine( बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक)
ISSN 2454-2725
जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिक
( बाबा साहब डॉ. भीमराव अ
-आत्माराम
ं ं
कविता समझना मुवककल काम है पर थोड़ी कोविि के बाद बुवि समझ की वदिा में आगे बढ़ने लग ही जाती है । विर
जब आप लग ही जाते हैं वक भला कविताओं में िे बातें, जो एक बार पढ़ने में भली लगती हैं और सिाल करती हैं
पढ़ने िाले से, तब हमें कु छ और भीतर जाने की इच्छा होती है । ऐसा भी कह सकते हैं वक आप नहीं जाना चाहते हैं तब
भी कभी कभी अपने भीतर खींच लेती है कविता, तब आप क्या करते हैं? थोड़ी रस्सा-कस्सी के बाद मैं उसके भीतर
जाने को उतािला हो जाता ह । बस यहीं से जंग िुरू हो जाती है । कविता िह बात मनिाने लगती है जो काग़ज पर
वलख दी गयी है और मैं उन बातों
को खोज़ने लग जाता ह जो कही
गयी बातों की तह में वछपी होती
हैं । इस तरह काग़ज पर वलखी
इबारत एक जररया बन जाती है मेरे
वलए, िहां तक पह ंचने का, जहां
से कविता का उद्भि होता है ।
वनवित ही यह अमल पेचीदा है
लेवकन क्या करें जड़ तक पह ंच
कर िापस ऊपर उठना ही कविता
को सहज समझने का अमल है ।
क्यों वक मैं समझना चाहता ह और
समझने के अमल में ही कहीं न
कहीं समझाने या विर तबादला-
ए-खयाल का अमल जारी रहता
है । इस तरह यह उस छोटे बच्चे
का अमल है जो चीज़ों को खोल
कर देखना चाहता है और इस तरह
की लगातार प्रविया में विर िह
इनको िापस जोड़ना भी सीख
जात है और उसमें नया नया
इजािा करना भी सीख जाता है ।
अगर इस प्रविया में िह ' ऐसा क्यों
और कै से होता है?' से दो-चार
होना िुरू हो जाता है तो वनवित
ही करने और सोचने के बीच के
पेचीदा अमल से भी िावकि हो
जाता है । मैं
सोचता ह
वक
कविताओं के साथ भी ऐसा ही
होता होगा । इसवलए कहा तो यही
जाता रहा है वक रचनाकार ही
अपनी रचनाओं को सबसे बड़ा
जानकार होता है । यहां मैं आलोचक िब्द का इस्तेमाल नहीं करूं गा, क्यों वक इस िब्द के ठीक ठीक मायने अभी तक
मेरी समझ में नहीं आये । बहरहाल, जहां तक कविताओं को समझने का सिाल है, इस प्रविया में मुझे अपनी बुवि के
साथ साथ उन लोगों पर भी वनभभर रहना पड़ता है वजन्होंने इस मागभ पर चलने के वलए मुझे िुरू में आमादा वकया और
मेरे सहज होने तक कमान नहीं छोड़ी । अब जब मैं अपनी कमान खुद सम्हाले हए ह तो यह वजम्मेदारी मुझ पर आ गयी
है वक मैं उन लोगों की कमाल सम्हालू जो इस वदिा में सहज होने की जद्दोजहद में हैं । हालांवक यह एक मुगालता भी
हो सकता है लेवकन सुखद है । बना रहे, क्या हजभ है ।
इसी दौर में िैलेंद्र चौहान की कविताओं की एक वकताब, '' ईश्वर की चौखट पर '' मेरे सामने मेरे इसी काम का वहस्सा बने हए है । छोटी सी, सु ंदर वजल्द और साि-सुथरी छपाई, देखने में भली लगती है । किर पर वचत्र भी एक बार आपको
कु छ क्षण के वलए रोक लेता है । आप पन्ना ख वचत्रकार के बारे में नाम, उत्तमराि क्षीरसागर, अक्सर ऐसा होता है, जब वक यही िह बात है
कवि की सु ंदर तस्िीर और उसके बारे में( रामकु मार कृ षक) का आिीिाभद, वजसकी सच् है । हालांवक कृ षक की यह बात, '' उसकी क सृवि करने लगती है ।'' इन कविताओं की खा वलखा गया इसकी जानकारी नहीं दी गयी । मैं आने में मदद करती है ।
यह तो हई िे बातें जो असल बात तक पह ंचन इन कविताओं को मैंने अपने काम का वहस्सा मािभ त कवि के मानस को समझने का यत्न वक
इस अमल के दौरान कोई राय बनती है तो उ वसलवसला इस वकताब की हदें लांधकर आगे
एक बात और, अपने काम के दौरान जो वमस समेटे लेवकन जहां तक बात का सिाल है, िह
के वलए मैंने जहां एक तरि परखी से काम वल परखना और वनहाररया से खोज़ के काम म
कविताओं में मैं उन आधारों को तलािने औ होते हए उनके कविकमभ के सरोकारों तक जा कविताओं का परीक्षण करने के स्कू ली और पाठकों को खींझ हो सकती है, पर हो, मैं पूछ से काटकर जनपथ ।
यहां
से
रास्ता
बनता
'' क्यों
नहीं
चल
गाहे-ब-गाहे
क्य
कववता
के
होनी
ही
( उस्तरेबाज़)
अजीब बात है कवि आसानी से िह वसरा मेरे आसान हो जाता है । ऊपर की पंवियों को ब
Vol. 2, issue 14, April 2016. वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016. Vol. 2, issue 14, April 2016.