Jankriti International Magazine vol1, issue 14, April 2016 | Page 37

जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिका / Jankriti International Magazine( बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक)
ISSN 2454-2725
जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिक
( बाबा साहब डॉ. भीमराव अ
-सुश ंत सुप्रप्रय
उसका ससर तेघ ददद से फटा जा रहा था । उसने पटरी से कान लगा कर रेलगाङी की आवाघ सुननी चाही । कहीं कु छ नहीं था । उसने जब-जब जो-जो चाहा, उसे नहीं समला । सफर आज उसकी इच्छा कै से पूरी हो सकती थी । पटरी पर लेटे- लेटे उसने कलाई-घङी देखी । आधा घंटा ऊपर हो चुका था पर इंटरससटी एक्सप्रेस का कोई अता-पता नहीं था । इंटरससटी एक्सप्रेस न सही, कोई पैसेंजर गाङी ही सही । कोई मालगाङी ही सही । मरने वाले को इससे क्या लेना-देना सक वह सकस गाङी के नीचे कट कर मरेगा ।
उसके ससर के भीतर कोई हथौङे चला रहा था । ट्रेन उसे क्या मारेगी, यह ससर-ददद ही उसकी जान ले लेगा-- उसने सोचा । शोर भरी गली में एक लंबे ससर-ददद का नाम सघंदगी है । इस ख़्याल से ही उसके मु ुँह में एक कसैला स्वाद भर गया । मरने के समय मैं भी स्साला सछलास्छर हो गया ह ुँ-- सोचकर वह पटरी पर लेटे-लेटे ही मुस्कराया ।
उसका हाथ उसके पतलून की बाई ंजेब में गया । एक अंसतम ससगरेट सुलगा लू ुँ । हाथ सवल्स का पैके ट सलए बाहर आया पर पैके ट खाली था । दफ़्तर से चलने से पहले ही उसने पैके ट की अंसतम ससगरेट पी ली थी-- उसे याद आया । उसके होठों पर गाली आते-आते रह गई ।
आज सुबह से ही सदन जैसे उसका बैरी हो गया था । सुबह पहले पत्नी से खट-पट हुई । सफर सकसी बात पर उसने बेटे को पीट सदया । दफ़्तर के सलए सनकला तो बस छू ट गई । सकसी तरह दफ़्तर पहुुँचा तो देर से आने पर बाॅस ने मेमो दे सदया । पे-सस्लप आई तो उसने पाया सक आधा से ज़्यादा वेतन इन्कम-टैक्स में कट गया था ।
सफर शुक्ला ने सबके सामने उसे घलील सकया । गाली-गलौज हुई । नौबत हाथा-पाई
तक पहुुँची । और शुक्ला ने उसे कु सी दे मारी ।
पटरी पर लेटे-लेटे उसका बायाुँ हाथ उसके दासहने घुटने को सहलाने लगा जहाुँ शुक्ला की मारी कु सी उसे लगी थी । ददद सफर हरा हो गया ।
असल में यह नौकरी उसके लायक थी ही नहीं-- उसने सोचा । ऑसफस में ऊपर से नीचे तक गधे भरे हुए थे । हर सुबह बैग और सटसछन सलए दफ़्तर आ जाते
थे । दोपहर का खाना खा कर ताश खेलते थे । काम के समय ऑसफस में सीट पर ऊुँ घते थे या सीट से गायब रहते थे । सदन में कई बार कैं टीन में चाय-कॉछी पीते थे । और बाकी बचे समय में एक-दूसरे की जङ काटते थे । इसको उससे
लङाना । उसको इसकी नघरों में सगराना । इसक पूवदजों के पास पाई जाने वाली अपनी लुप्त पू ुँछ
उसका दम यहाुँ घुटता था । वह इन
' टेलेंट ' की कोई कदर नहीं थी । आपके गुण
बचपन में माुँ ने ससखाया था-- बेट थी और ऐश करती थी । सपताजी कहते थे-- रर
लेने और देने वाले, दोनों ही अपनी नघरों म आदमी का पतन करती है । पर यहाुँ दारू पीन दफ़्तर में चुगली-सनंदा
से दूर रहना, बेटा । पर यहाुँ चुगली-सनंदा स आदमी का भगवान होता है । पर यहाुँ भगवान हो गया था । आप लोगों ने मुझे यह क्या ससखा
' समससछट ' था । दफ़्तर में ही नहीं, घर में भी ।
वह चाहता था सक पत्नी उसका सुख सभी ऐशो-आराम ।
दत्ताजी भी तो आपके साथ काम शुक्लाजी, ससंह साहब, खान साहब-- सबक ऐसी ईमानदारी का मैं क्या अचार डालू ुँ-- वह होते हैं । लोगों का काम करो और उनसे सगफ़्ट्स
क्या पापा, मेरे सब दोस्त नई-नई गास है । उन्हें डेली कम-से-कम सौ रुपए जेब-खचद स-- बेटा सशकायत करता । उधर पत्नी ताना मारत
पूरी दुसनया में एक भी आदमी नहीं थ बहुत चाहती थी । वह दादाजी का लाङला था ।
Vol. 2, issue 14, April 2016. व ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016. Vol. 2, issue 14, April 2016.