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जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिका / Jankriti International Magazine( बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक)
ISSN 2454-2725
जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिक
( बाबा साहब डॉ. भीमराव
प्रेम कभी खाप, कभी डर, कभी इज़्ज़त कभी यह कभी वो कह के वैसे ही क़त्ल होता था अब साकज़शों से उसे तुमसे भी हटाया गया प्रेम ककवता कलखने वाली स्त्री को कड़े कनदेश " प्रेम कलखने की वस्तु नहीं इसीकलए तुम्हारी ककवता खाररज की जाती है " और स्त्री सर झुका कर अपनी कलम
जला आती है या कलखती है अपने आांसुओ से स्त्री कवमशम की ककवताएां और बड़ी ककव हो जाती है पर उसकी अांतर की स्त्री मर जाती है प्रेम! तुझे स्त्री के जीवन से तो हटाया ही गया अब उसकी ककवता में भी उसका गला घोटने कई प्रबुद्ध कतारबद्ध है शायद स्त्री के हर प्रेम के कवरूद्ध ककसी षड्यांत्र में रत है!
4. वो स्त्री थी
वो स्त्री थी तभी के वल प्रेम समझती थी उसे ही कबछाती थी और औढती थी प्रेम को सीकढ़यााँ बना जीवन के गहन रहस्यों में चढ़ती, उतरती थी प्रेम की बावड़ी में अपने ही रूप पर इतराती सजती, सवरतीं थी बीच नदी में जब डूबने को होती छटपटाती ……
सर बाहर लाती हवा को हटा कर हाथ से प्रेम का एक लम्बा साांस भरती और जी जाती वो पुरुष था तभी के वल स्त्री को समझता था उसे बस डोर बनना समझ आता जब स्त्री पतांग हो जाती स्त्री की साांस डूबती तो प्रेम के घू ांट कपलाता वो पुरुष था इसीकलए भटक जाता और स्त्री के आरोपों से कचढ़ जाता वो प्रेम नहीं जानता था बस स्त्री के मु ाँह को देखता और दुकवधा में पड़ जाता
और प्रेम से और दूर भाग जाता! वो स्त्री थी इसीकलए रो पड़ती वो पुरुष था इसीकलए पीठ िे र कर सो जाता!
5. उपनाम
मैंने जूही की वो कली देखी है जो कभी महका करती थी सुनहरे रांग में मैंने वादी की उस बिम को भी देखा है जो चमका करती थी कभी चाांदनी की तरह मैंने उन बतखों को भी देखा है जो तैरा करती थी कभी झील में ताल कमला कर
लेककन जूही की वो कली आज बीमार, पीली, मररयल सी लगती है
वादी की वो बिम भी अब काले बालो में से झाांकती सफ़े द लट सी अखरती है झील में तैरती वो बतख भी अब बूढी हो, लडखडा के कगर जाती है और मै??? मुझे भी तो तुम
जूही की कली बिम सो शुभ्र बतखों सी चांचल कहा करते हो सोची ह ाँ मेरे इन उपमानों को ज़रुरत पड़ेगी कभी न कभी एक बैसाखी की!
6. प्रेम ककवताए
मन करता है की सभी चीनी, रूसी जापानी, अिगानी अांग्रेजी, कहांदी, फ्रें च प्रेम ककवताए इकट्ठी करके उनका एक मज़ार बना डालू और देखू कौन वह जाता है एक िू ल चढ़ाता है पढता है िाकतहा या वहाां की धूल माथे से लगाता है रोता है कबलख कर या कक बस पत्थरा जाता है बस मन करता है
Vol. 2, issue 14, April 2016. वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016. Vol. 2, issue 14, April 2016.