Jankriti International Magazine vol1, issue 14, April 2016 | Page 30

जनकृति अंिरराष्ट्रीय पतिका/Jankriti International Magazine ISSN 2454-2725 (बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक) जनकृति अंिरराष्ट्रीय पतिका/Jankriti International Magazine (बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक) 1. मेट्रो में जाती लडककयां ------------------------सत्ता-पक्ष के बद्धु िजीवी द्धवपक्ष की आलोचना करते हैं : आज जो देश का हाल है वह इसी द्धवपक्ष के कारनामों का नतीजा है क्योंद्धक पहले इनकी सरकार थी और आज जो कुछ भी है भ्रष्टाचार, अन्याय, द्धहसिं ा : क्या वह पहले नहीं थी बद्धकक पहले तो अद्धधक ही थी सरकार करना तो बहुत चाहती है पर द्धसस्टम इतना द्धबगड़ा हुआ द्धमला है द्धक उसे ठीक करने में बहुत वक़्त लगेगा इस तरह लोकतिंत्र में अतीत का इस्तेम ाल उससे कुछ सीखने के द्धलए नहीं वततमान को सह्य बनाने के द्धलए द्धकया जाता है ..................... -------------अपमाद्धनत करनेवाला सोचता है द्धक वह द्धवजेता है पर अपकृ त्य वह इसी किंु ठा में करता है द्धक उसका कोई सम्मान नहीं है ........................ पसीने से लथपथ सड़को पर भागती शादी की उम्र कब की पीछे छोड़ आई मेट्रो में जाती लडककयाां बसो में धक्के खाती चलते किरते भी कपता की दवाई की, मााँ के चश्मे की आवारा भाई की बाइक के कलए पेट्रोल की कचतां ा करती है और भल ू जाती है शादी डॉट कॉम में लॉग-इन करना सदा के कलए ! --------- 2. घर जहााँ कोई नहीं रहता नदी गहन है करुणा से उत्साह से गद्धतमान् उसके प्रवाह का कारण सजलता है और इनकी सिंहद्धत उसका सौन्दयत ........................ एक सांकरी गली का आखरी मकान कजसकी दीवारे कगर रही है और पीपल उग रहे है दरारों में कजसके दरवाज़े बेरांग राह ताक रहे जाने ककसकी कगरते कमरे की दीवारे जाने कमज़ोर हो टूट रही थी या किर यादो के बोझ से ! कभी कान खड़े कर रही है छत के सीकढ़याां कभी हैरान नीम साांस रोक कर सनु रहा है आवाज़ उनकी जो चले गए बरसो पहले ना लौट आने को Vol.2, issue 14, April 2016. Vol.2, issue 14, April 2016. ISSN 2454-2725 वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016. चरमरता जगां खाया लोहे का िाटक जाने कै से अपने आप खल ु ता बांद हो जाता है मानो कखड़ककयों, दरवाज़ों, दीवारों को कचड़ा रहा हो रोज़ एक ईटां कगर रही है उसकी जैसे आसां ू ककसी अनाथ बच्चे के गाल पे बह रहा है रोज़ कदन आकर नाप जाता है उम्र उसकी रोज़ रात आकर दल ु ार जाती है अचानक बढ़ गयी है सरसराहट एक अजनबी सी महक आने लगी है बढ़ू ा मकान आकखरी साांस ले रहा है शायद ! 3. ककवता अचानक वो अभागी लडककया याद आ रही है आजकल कजन्हे भ्रणू में ही कगरा कदया गया या किर जनम लेने ही नहीं कदया कुछ बेशमम, इरादो की पक्की दकु नया को धत्ता बता कर किर भी जनम ले गयी और परू ी उम्र अपनी सााँसों की कीमत चक ु ाती रही आाँसओ ु की जगह उन्होंने यद्ध ु चनु े और हज़ार कशकस्तों के बाद भी अपनी हर जीत पे खल ु कर कहकहे लगाए आसां ओ ु की खारी बावली में नहा कर कनखरती रही िूल, पत्ती , चााँद , कसतारो , बादलो के साथ अपने लड़की होने के जश्न मनाती गयी I ककवता आज तुम भी मझु े उन्ही सी लग रही हो आज तम्ु हारे नाम पर वैसे ही बवाल जैसे लड़की के जनम पे होते रहे वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016.