Jankriti International Magazine vol1, issue 14, April 2016 | Page 18

जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिका / Jankriti International Magazine( बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक)
ISSN 2454-2725
जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिक
( बाबा साहब डॉ. भीमराव
मेरे पडोस की बुकढया ऺ ने ईजाद ककया है एक यांत्र कजसमें आांसू डालो, तो पीने लाय़ा पानी अलग हो जाता है, खाने लाय़ा नमक अलग.
एक माां इतने ममत् व से देखती है अपनी सांतान को कक उसके दूध की धार से बहने लगती हैं कई नकदयाां
जो धरती पर कबखरे रक् त के गहरे लाल रांग को प्रेम के हल् के गुलाबी रांग में बदल देती हैं..............................................................
गैंग अलग-अलग जगहों से आए कु छ लोगों का एक गैंग है इसमें पान िपरी पर खडे शोहदे हैं, मांकदरों-मकस्जदों पर पेि पालते कु छ धमज गुरु हैं, कु छ लेखक हैं, थोडे अजीब-से लगने वाले रांगों का प्रयोग करने वाले कु छ कचत्रकार और हर खबर पर दााँत कचयार देने वाले कु छ पत्रकार नाक पर चश्मा चढाए बैठे मैनेजर हैं जो हर बात में ढूांढ ही लेते हैं बाज़ार कु छ बहुत रचनात्मक क़ास्म के लोग हैं जो बताते हैं ठांडे की बोतल का एक घू ाँि सारे ररश्ते- नातों से ऊपर है कु छ बडे ही दीन-हीन क़ास्म के हैं चौबीस घांिे कजनकी कचांता का मरकज़ अरोडा साहब की सेलरी है कु छ लोग सातों कदन बडे प्रसन्न रहते हैं और समझ में नहीं आता कक दुकनया में दुख क्यों है और कु छ की खुशी के वल वीकें ड में आती है कचकने गालों और मजबूत भुजाओां वाले कु छ नि हैं एक खास ढब वाली कियााँ हैं कजनके घरों में रोते हुए कशशु नहीं होते
जो िारगेि पर दागी गई कमसाइल की तरह सीधे आ कगरते हैं कइयों के पास दुकनया को व्यवकस्थत करने के हज़ारों फां डे हैं कु छ लोगों के होठों पर कशवानांद स्वामी के काव्य बराबर रहते हैं और कु छ लोगों के गले में कु मार शानू के गीत
यह गैंग अपने समय की बडी प्रकतभाओां का प्लेिफॉमज नांबर वन है यह गैंग ककसी भी हाँसते-खेलते देश के सीने पर सवार हो जाता है और ककसी भी अांगडाती नदी पर डांडा मार उसे कछतरा सकता है यह गैंग मुझे कजतनी बार बुलाता है मेरा कदल धक् से रह जाता है.....................................................................
पोस्टमैि
अपने कमरे में लेिा पोस्िमैन है जो नेरूदा को पहुाँचाता था डाक हालााँकक उन्हें गए अरसा बीत गया जैसे आवाज़ करती है सुने जाने का इांतज़ार और भिकती है हवा में अनांतकाल तक जैसे दृश्य से जुडा होता है दृकि का इांतज़ार घर से कनकली बेिी का मााँ करती है जैसे वैसी ही बेचैनी कजसे वह सदज रात में ओढ लेता है और तपते कदन में झल लेता है
क्या सोचा होगा महाककव ने
जब पोस्िमैन ने की होगी कजद
ऺ कक कलख दें वह उसकी प्रेकमका के कलए एक क कजसे वह कहेगा अपनी कक आपके पास इतनी मकहलाओां की कचट्ठी आ कक मेरा भी मन करता है ककव बन जाऊाँ
नेरूदा के भीतर जागा होगा कपता सााँसों से दुलारा होगा उसे और उांगली थमा ले गए होंगे समांदर तक उसे बताया होगा कक सपनों को सपनों की तरह मत करो जांगल से कमलो तो हरी पत्ती बनकर पानी से बन चीनी का दाना लकडी से काग़ज़ और मनुष्य से सांगीत बनकर
और जीवन में प्रवेश कर गए होंगे उसके जीवन में एक सूना डाकखाना छोड
वह कर रहा है इांतज़ार जीवन के पार हररयाली कमठास शब्द और सुर की अर्घयज देता
वह क्या है जो इस कमरे में नहीं है कजसके कलए खाली है जगह इस ककताब में नहीं जो छोड कदया एक पन्ना स इस कै सेि में कजसके एक ही तरण आवाज़ है इस शरीर में कजसके मध्य खाई-सी बन गई है इस शख़्स में जो थकान के बाद भी भिकता ह पर भीतर कहीं िपकता है जल या आाँख का नल
कजसके पास रोज़ गट्ठरों में पहुाँचती हो कचट्ठी वह क्यों नहीं देता उसकी कचट्ठी का जवाब वह जागेगा तब तक सो चुकी होगी दुकनया कफर वह अपनी अकनद्रा में कसमसाएगा
Vol. 2, issue 14, April 2016. वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016. Vol. 2, issue 14, April 2016.