Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका
ISSN: 2454-2725
डी एम समश्र की गजल
1
मकसी और में बात कहाँ वो बात जो च द्र ं म ख
ी में ह
सौ-सौ दीप जलाने को वो इक तीली-सी जलती है।
नम ममट्टी पत्थर हो जाये ऐसा कभी न हो
मेरा गाँव , शहर हो जाये ऐसा कभी न हो। खड़ी द प ु हरी में भी मनखरी इठलाती बलखाती वो
ध प ू की लाली, रूप की लाली दोनों गाल पे सजती
है।
हर इ स ं ान में थोड़ी बहुत तो कममयाँ होती ह
वो मबल्कुल ईश्वर हो जाये ऐसा कभी न हो। 3
बेटा, बाप से आगे हो तो अच्छा लगता ह
बाप के वो ऊपर हो जाये ऐसा कभी न हो। मखली ध प ू से सीखा मैने ख ल
े गगन में जीना
पकी फ़सल में देखा मैंने ख श
बूदार पसीना।
मेरे घर की छत नीची हो म झ ु े गवारा ह
नीचा मेरा सर हो जाये ऐसा कभी न हो। अभी तो मेरे अम्मा - बाबू दोनों घर में बैठे
अभी तो मेरा घर ही लगता मक्का और मदीना।
खेत मेरा परती रह जाये कोई बात नहीं
खेत मेरा बंजर हो जाये ऐसा कभी न हो। लोग साथ थे इसीमलए वरना हचकोले खाता
पार कर गया प र ू ा दररया छोटा एक सफ़ीना।
गाँव में जब तक सरपत है बेघर नहीं है कोई
सरपत सँगमरमर हो जाये ऐसा कभी न हो।
2 कहाँ ढूँढने मनकले हो अमररत इस अ ध ं गली म
अगर मज़ द ं गी जीना है तो सीख लो मवर्ष भी पीना।
बेाझ धान का लेकर वो जब हौले-हौले चलती ह
धान की बाली, कान की बाली दोनों सँग-सँग बजती
है।
लॉग लगाये ल ग ू े की, आँचल का फें टा बाँधे वो
आधे वीर, आधे मसँगार रस में महरनी-सी लगती है।
कीचड़ की पायल पहने जब चले मखमली घासों
पर
छम्म-छम्म की मध र ु तान न प ू र ु की घ ट ं ी बजती है।
मकसी कली को कहाँ ख़बर होती अपनी स ंद ु रता की
यों तो कुछ भी नहीं मगर सपनों की रानी लगती हैं।
Vol. 3 , issue 27-29, July-September 2017.
कई हुकूमत देख मलया है समदयाँ ग ज़ ु र गई ं ह
बहुत बार टकराया तेरा ख ज ं र मेरा सीना।
4
मकसी जन्नत से जाकर हुस्न की दौलत उठा लाय
हमारे गाँव से क्यों सादगी लेमकन च र ु ा लाये।
बताओ चार पैसे के मसवा हमको ममला ही क्या
मगर सब प छ
ते हैं हम शहर से क्या कमा लाये।
हज़ारों बार इस बाज़ार में मबकना पड़ा मफर भी
ख श
ी इस बात की है हम ज़मीर अपना बचा लाये।
त म् ु हारी थाल प ज ू ा की करे स्वीकार क्यों ईश्वर
वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017