Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 51

Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN: 2454-2725 डी एम समश्र की गजल 1 मकसी और में बात कहाँ वो बात जो च द्र ं म ख ी में ह सौ-सौ दीप जलाने को वो इक तीली-सी जलती है। नम ममट्टी पत्थर हो जाये ऐसा कभी न हो मेरा गाँव , शहर हो जाये ऐसा कभी न हो। खड़ी द प ु हरी में भी मनखरी इठलाती बलखाती वो ध प ू की लाली, रूप की लाली दोनों गाल पे सजती है। हर इ स ं ान में थोड़ी बहुत तो कममयाँ होती ह वो मबल्कुल ईश्वर हो जाये ऐसा कभी न हो। 3 बेटा, बाप से आगे हो तो अच्छा लगता ह बाप के वो ऊपर हो जाये ऐसा कभी न हो। मखली ध प ू से सीखा मैने ख ल े गगन में जीना पकी फ़सल में देखा मैंने ख श बूदार पसीना। मेरे घर की छत नीची हो म झ ु े गवारा ह नीचा मेरा सर हो जाये ऐसा कभी न हो। अभी तो मेरे अम्मा - बाबू दोनों घर में बैठे अभी तो मेरा घर ही लगता मक्का और मदीना। खेत मेरा परती रह जाये कोई बात नहीं खेत मेरा बंजर हो जाये ऐसा कभी न हो। लोग साथ थे इसीमलए वरना हचकोले खाता पार कर गया प र ू ा दररया छोटा एक सफ़ीना। गाँव में जब तक सरपत है बेघर नहीं है कोई सरपत सँगमरमर हो जाये ऐसा कभी न हो। 2 कहाँ ढूँढने मनकले हो अमररत इस अ ध ं गली म अगर मज़ द ं गी जीना है तो सीख लो मवर्ष भी पीना। बेाझ धान का लेकर वो जब हौले-हौले चलती ह धान की बाली, कान की बाली दोनों सँग-सँग बजती है। लॉग लगाये ल ग ू े की, आँचल का फें टा बाँधे वो आधे वीर, आधे मसँगार रस में महरनी-सी लगती है। कीचड़ की पायल पहने जब चले मखमली घासों पर छम्म-छम्म की मध र ु तान न प ू र ु की घ ट ं ी बजती है। मकसी कली को कहाँ ख़बर होती अपनी स ंद ु रता की यों तो कुछ भी नहीं मगर सपनों की रानी लगती हैं। Vol. 3 , issue 27-29, July-September 2017. कई हुकूमत देख मलया है समदयाँ ग ज़ ु र गई ं ह बहुत बार टकराया तेरा ख ज ं र मेरा सीना। 4 मकसी जन्नत से जाकर हुस्न की दौलत उठा लाय हमारे गाँव से क्यों सादगी लेमकन च र ु ा लाये। बताओ चार पैसे के मसवा हमको ममला ही क्या मगर सब प छ ते हैं हम शहर से क्या कमा लाये। हज़ारों बार इस बाज़ार में मबकना पड़ा मफर भी ख श ी इस बात की है हम ज़मीर अपना बचा लाये। त म् ु हारी थाल प ज ू ा की करे स्वीकार क्यों ईश्वर वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017