Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 50

िासहसययक सिमिक: गज़ल
Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN: 2454-2725

िासहसययक सिमिक: गज़ल

निीन मसण सिपािी की गज़लें
यह सही है बेचने वह भी गया ईमान को । मगर गया बाज़ार सारी बोमलयाँ कम पड़ गई ं ।।
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पूमछये मत क्यो हमारी शोमखयाँ कम पड़ गई ं । मजंदगी गुजरी है ऐसे आमधयाँ कम पड़ गई ं ।।
भू ंख के मंजर से लाशों ने मकया है यह सवाल । क्या ख़ता हमसे हुई थी रोमटयां कम पड़ गई ं ।।
जुमा की हर इंमतहाँ ने कर मदया इतना असर । अब हमारे मुल्क में भी बेमटयां कम पड़ गई ं ।।
मान् लें कै से उन्हें है मफक्र जनता की बहुत । कु मसायां जब से ममली हैं झुररायां कम पड़ गई ं ।।
इस तरह मबकने लगी है मीमडया कीसाख भी । जबलुटी बेटीकी इज्जत सुमखायां कमपड़ गई ं ।।
मैच मफर खेला गया कु बाामनयो को भूलकर । चन्द पैसों के मलए रुसवाइयाँ कम पड़ गई ं ।।
मत कहो हीरो उन्हें तुम वे मखलाड़ी मर चुके । दुश्मनों के बीच मजनकी खाइयां कमपड़ गई ं ।।
हो गया नीलाम बच्चों की पढ़ाई के मलए । जामतयों के फ़लसफ़ा में रोमजयाँ कमपड़ गई ं ।।
क्यो शह्र जाने लगा है गांव का वह आदमी । नीमतयों के फे र में आबामदयां कम पड़ गई ं ।।
देखते ही देखते क्यो लुट गया सारा अमन । कु छ लुटेरों के मलए तो बमस्तयां कम पड़ गई ं ।।
मसफा अपने ही मलए जीने लगा है आदमी । देमखए अहले चमन में नेमकयाँ कम पड़ गई ं ।।
मफक्र बनकर मतश्नगी देखा सँवर जाती है रोज़ । उस दरीचे तक मेरी सहमी नज़र जाती है रोज़ ।।
बेकरारी साथ लेकर मुन्तमज़र होकर खड़ी । एक आहट की खबर पर वह मनखर जाती है रोज ।।
मसम्त शायद है ग़लत उलझे हुए हालात हैं । है मुसीबत बदगुमां घर में ठहर जाती है रोज़ ।।
मजंदगी के फ़लसफ़े में है बहुत आवारगी । ठोकरें खाने की ख़ामतर दर बदर जाती है रोज़ ।।
यह उमीदों का पररंदा भी उड़े तो क्या उड़े । बेरुखी तो बेसबब पर ही कतर जाती है रोज़ ।।
कु छ दररंदों की तबाही, जुमा मजंदाबाद है । आत्मा तो सुमखायां पढ़कर मसहर जाती है रोज़ ।।
बन गया चेहरा कोई उसके मलए अखबार अब । पढ़ मशकन की दास्तां मदल तक खबर जाती है रोज़ ।।
दे रहा है वक्त मुझको इस तरह से तमिबा । आँमधयों के साथ में आफ़त गुज़र जाती है रोज़ ।।
वस्ल की ख़्वामहश का मंजर है सवालों से मघरा । देमखए सामहल को छू नें यह लहर जाती है रोज़ ।।
क्या कोई ररश्ता है उसका पूछते हैं अब सभी । क्यू ँ इसी कू चे से वो शामो सहर जाती है रोज़ ।।
Vol. 3, issue 27-29, July-September 2017. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017