Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 259

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
परवाह ? वे मखलमखलाकर हँसती हैं और मानो मंगर
को मचढ़ाने के मलए ही गाती हैं- ' नइहरवा में ठंडी बयार , ससुरवा मैं ना जइहौं । ससुरा में ममले ला जउआ की रोटी मडुआ की रोटी , नइहरवा में पूरी हजार । ससुरवा मैं ना जइहौं । 7
आमदकाल से ही भारतीय संस्कृ मत और महंदू धमा का अन्योन्याश्रय संबंध रहा है । यह स्थामपत सत्य है मक जब तक सबंध अन्योन्याश्रय बना रहता है , तब तक संस्कृ मत की ध्वजा पताका फहराती रहती है , मकन्तु , मवश्व का इमतहास साक्षी है , जब कभी मकसी संस्कृ मत पर धमा हावी होने लगता है तब धीरे-धीरे उस संस्कृ मत में धाममाक अंधमवश्वासों और रुमढयों का संक्रमि होने लगता है । पररिामस्वरूप , धीरे-धीरे संस्कृ मत कोढ़ग्रस्त होने लगती है और समाज पतनशीलता के मागा पर अग्रसर हो जाता है । शायद इसमलए ही अंधमवश्वास और रूमढ़याँ हमारी संस्कृ मत का अटूट अंग बन गई है , जो हमारे समाज को आधुमनक ्टमसे और आधुमनक मवचारधारा अपनाने में सबसे बड़ा बाधक बन कर खड़ा है । बेनीपुरी जी अपने आत्मकथ्य ' मेरी माँ ' में समाज में प्रचमलत अंधमवश्वास का विान करते हैं - " कहा जाता था , जो माँ छोटे बच्चे को छोड़कर मरती है , वह चुड़ैल होकर मफर बच्चे को लेने आती है । इसकी रोक यह समझी जाती थी मक मुदे के दोनों पैरों को इकठ्ठा कील ठोंक दी जाए और घर से श्मशान तक सरसों के दाने छींट मदये जाएँ । कील के कारि चल न सके गी और यमद मघसट- मघसटकर चली भी तो सरसों के सारे दाने चुन लेने के बाद ही वह आ पाएगी । इतने दाने वह बेचारी कै से चुनेगी ? अतः बच्चा मनरापद रहेगा ।" 8 भारतीय समाज को पतनशीलता की ओर ले जाने वाली इस तरह की असंवेदनशील परंपराओं और प्रथाओं से तथा भारतीय संस्कृ मत को यथामस्थमत रखने वालों
और पररवतानशीलता का मवरोध करने वालों से बेनीपुरी जी बहुत दुखी थे । ' मेरी माँ ' में समाज के प्रमत तथा यथामस्थवामदयों और अपररवतानगामी शमक्तयों के प्रमत उनका क्रोध स्पसे मदखाई देता है - " जब-जब मुझे याद आता है मक मेरी माँ के पैरों को इकिा कर एक लम्बी कील ठोंक दी गयी थी , अपने समाज पर वह गुस्सा आता है , मजसकी कोई सीमा नहीं । जहाँ माँ का , मातृत्व का , संतान-प्रेम का ऐसा अपमान हो , मनरादर हो , उस समाज को जहन्नुम जाना चामहए । 9
बेनीपुरी जी का मत है - समाज एक ऐसा वृक्ष है , मजसकी जड़ अथानीमत की , आधार राजनीमत और फल संस्कृ मत होती है । वतामान समय में बेरोजगारी , महंगाई , यांमत्रकता , सामामजकता का ह्रास , पू ंजीवादी सभ्यता का प्रसार , पयाावरि की दुगामत इत्यामद से हमारी संस्कृ मत पर मवपरीत प्रभाव पड़ा है । समाज में व्याप्त इस तरह की कु रूपता को उन्मूमलत कर समाज में मानवीय गुिों के मवकास हेतु बेनीपुरी जी समाज का सांस्कृ मतक पुनमनामाि करना चाहते थे । भारतीय संस्कृ मत की पतनशील मस्थमत को देखकर बेनीपुरी जी बहुत मचंमतत थे इसमलए स्वतंत्रता संघर्षा के पिात ही अपनी लेखनी के माध्यम से उन्होंने सांस्कृ मतक पुनजाागरि को मुख्य मुद्दा बनाया । ‘ गेहूँ और गुलाब ’ के माध्यम से उन्होंने बताया मक ‘ गेहूँ ’ है - रोटी , कपडा , आवास , मशक्षा , मचमकत्सा इत्यामद मानव के भौमतक मवकास का प्रतीक तथा ‘ गुलाब ’ है हमारी संस्कृ मत और सांस्कृ मतक मवकास का प्रतीक । मनुष्ट्य के जीवन में ‘ गेहूँ ’ अथ ात भौमतक मवकास और ‘ गुलाब ’ अथाात सांस्कृ मतक जगत , दोनों में सम्यक संतुलन अत्यंत आवश्यक है । असंतुलन की मस्थमत में समाज में संघर्षा की मस्थमत पैदा हो जाती है । भौमतक जगत के आकर्षाि पाश में फँ सकर मानव अमधक से अमधक और दूसरे से अमधक इकठ्ठा कर लेने की चाहत में ‘ गेहूँ ’ के पीछे रथ में जुते घोड़े की तरह सरपट दौड़ने लगा , पररिामस्वरूप , ‘ गुलाब ’ अथ ात हमारे सांस्कृ मतक गुि- क्षमा , दया , तप , त्याग , दान , अमहंसा , सत्याग्रह , परोपकार , वसुधैव कु टुम्बकम की
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017