Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 258

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
त्यौहार वाले मदन ही लगते हैं । ये भारतीय सभ्यता के आरंभ से ही सामामजक एकता और समरसता के मलए टॉमनक का काम कर रहे हैं । हमारी संस्कृ मत का मवशेर्ष स्वरुप इन मेलों में झलकता है । डॉ के शव देव शम ा मलखते हैं – ‘” जीवन की एकरसता और शुष्ट्कता से कु छ समय को शांमत के मलए मानव मन को कु छ साधनों की आवश्यकता होती है । इसके मलए वह समयानुकू ल आमोद-प्रमोद , हर्षा-उल्लास एवं आनंद प्रामप्त के मलए उत्सव एवं त्यौहारों का आयोजन करता है ।" 4 लोग इन मेलों में आपसी मतभेदों को भूलकर महस्सा लेते हैं । यह हमारी सांस्कृ मतक मवशेर्षता है । बेनीपुरी जी ने अपने रेखामचत्र ' रूपा की आजी ' में मशवरामत्र के मेले का जीवंत विान मकया है- " मशवरामत्र का यह मेला । लोगों की अपार भीड़ । बच्चे , जवान , बूढ़े , लड़मकयाँ , युवमतयाँ , बूमढ़याँ । मशवजी पर पानी , अक्षत , बेलपत्र , फू ल , फल । मफर , एक ही मदन के मलए लगे इस मेले में घूम-मफर , ख़रीद- फ़रोख्त । धक्के -पर-धक्के । चलने की जरूरत नहीं , अपने को भीड़ में डाल दीमजए , आप-ही-आप मकसी छोर पर लग जाइएगा । बच्चों और मस्त्रयों की अमधकता । उन्हीं के लायक ज्यादा सौदे । खंजड़ी , मपपही , झुनझुने , ममट्टी की मूरतें , रबर के मखलौने , कपड़े के गुड्डे , रंगीन ममठाइयाँ , मबस्कु ट , लेमनचूस । मटकु ली , सेंदूर , चूमड़याँ , रेशम के लच्छे , नकली नोट , चकमक के पत्ते , आईना , कं घी , साबुन , सस्ते एसेंस और रंगीन पाउडर । भाव-साव की छू ट , हल्ला-गुल्ला । गहनों के झमझम में चूमड़यों की झनझन । सामड़यों के सरसर में हँसी की मखलमखल ।" 5
भारत कृ मर्ष प्रधान देश है । भारत में मनाए जाने वाले हर उत्सव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मकसी फसल की बुआई से पहले या फसल पकने के बाद या कटाई के बाद मनाई जाती है । हमारी कृ मर्ष हमारी संस्कृ मत का अहम महस्सा मानी गई है । बेनीपुरी जी ने ' मासानां मागाशीर्षोंहम ' में अगहन महीने का विान मकया है -
" मैं महीनों में अगहन हूँ । देखते नहीं , यह नीरभ्र नीला आकाश मेरा श्यामल शरीर है । पके -पके , पीले-पीले धान से भरी धनखेमतयाँ - यह मेरा पीत पट है । पुरवा हवा पर कै से लहराता यह । उस हवा के कारि धान की बामलयों से जो सुरीला स्वर मनकलता है , वहीं तो मेरी वंशी-ध्वमन है ।" 6
लोकगीत भारतीय संस्कृ मत का अहम अंग है । लोकजीवन का समूचा इमतहास लोकगीतों में समाया रहता है । लोकगीत बदलती हुई ऋतुओं के अनुसार गाए गाते हैं । पवों , उत्सवों के अवसर पर तथा खेतों में काम करने समय भी लोकगीत गाए जाते हैं । बेनीपुरी जी के ' रोपनी ' में खेतों में काम करने समय गाए जाने वाले लोकगीतों को देमखए- " मसंहेसर चाचा औरतों के एक झु ंड को लेकर बीया उपारने को बीहन के खेत की ओर चले । सुमनए , जाती हुई वे गा रही हैं -
' कहँमा लगइहौं मैं जूही - चमेली , कहँमा लगइहौं अनार हे ... नाररयर के गमछया ।। दुअरे लगइहौं मैं जूही -चमेली अँगने लगइहौं अनार हे नाररयर के गमछया ।।'
उधर बीहन के खेत में झूमर हो रहा है , तो इधर हलवाहों ने रोपनी के खेत में बेरहा की टेर लगाई- ' आम के गाछ कोइमलया कु हके , बनमा में कु कए मोर । मोरा अँगना में कु हकए सोना के मचड़इया , सुन हुलसे मजया मोर ।'
बूढ़े मंगर की तो सबने ममलकर दुगात बना दी । कीचड़ से वह बेचारा भूत बना हुआ है और रह-रहकर गामलयाँ बोलने से भी बाज नहीं आता , मकं तु इन रोपनी करनेवाली औरतों को इन गामलयों की क्या
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017