Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका
समदयों से....
कभी कभी लगता ह
बदलनी ही होगी
चयनमाला.... जीवन की ;
मौन से म ख
रता की ओर ।
3) सिचार-सिमि
एक रोज़
दही से मथ मदए सारे मवचार
अम्मा न
कहे मक यही मवमशा है !
साध लो...!!
आँगन में गढ़ी मसल और गहरा गई
आजन्म लोढ़े सी अम्मा पीसती है...
तीखे मसाले और मवचार
बहुत हुआ... मझली का !
कमबख्त बी ए की मकताब
क्या क्या मसखा गई ं बहुओ ं को..
बड़की ने तो काट मलए थ
प र ू े बारह बरस....
आँगन में खाटों पर स ख
ते सूखत
पापड़ और बड़ी के साथ
सो तो न कौंधे मवचार....!
छुटकी भी गाय की घण्टी सी
बजती है म द ं म द ं
लच्छन की मारी है..!!
और ये मझली....हाय!!
कोहराम मचा है इसका
मक कुछ ज़्यादा ही करती है तक
Vol. 3 , issue 27-29, July-September 2017.
ISSN: 2454-2725
मनाही पर भी मवचारती ह
और बेपदाा संवादों स
मवमशा साधती है ।
4) प्रेसमल कसिताए
प्रेम में उमगी
जब जब कमवताए
कुछ रूपक छाँट बाँट मलए हमन
अनहद बहते भावों पर
गठजोड़ी बाँध बनाए हमनें !
प्रेम की उपमाएँ भी बहुत अन ठ ू ी होती ह
मैं ; त म् ु हारे मलए
त म् ु हारी सम्प ि ू ा कमवता हू
और त म ु
मेरी कमवताओ ं के वे च म् ु बकीय शब्द हो
मजससे कमवता दर कमवता
मनखर रहा है प्रेममल काव्य...
म झ ु े भाता है व्याकरि बने रहना
उन च म् ु बकीय शब्दों के बीच
क्योंमक म झ ु े भाता है अथा हो जाना
मसफ़ा त म् ु हारे साथ !
त म ु म झ ु े मानते रहे हो
त म् ु हारी उदात्त कल्पनाए
और लगाते रहे हो गोत
अतीत या भमवष्ट्य में....
पर मैंने आज को जीना सीखा ह
इसीमलए प्रेममल काव्य म
त म ु मेरे यथाथा हो ।
वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017