Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 19

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN: 2454-2725
अपरासजत----------
लौट भले ही आया हूं मैं / लेमकन हारा अब भी नहीं न ही कमज़ोर पड़ा है लक्ष्य तक पहुंचने का मेरा इरादा । हां, मैं परामजत नहीं हूं पीछे लौटना- मशकस्त का प्रतीक होता भी नहीं / हर बार मवजय की शुरुआत भी हो सकता है । मैं लौट भले ही आया था लेमकन मेरे भीतर संमचत है अब लक्ष्य प्रामप्त की ललक, आत्मबल और मवश्वास पहले से भी ज्यादा, साथ ही न चूकने का सबक भी । देखना- मैं मवजयी होऊं गा, मैं मवजयी हो भी रहा हूं और / लो मवजयी हो गया मैं..!----
लेसकन...---------
तुम्हें भले ही न हो उम्मीद लेमकन एक मदन ज़रूर लौटूंगा
मैं, जब संध्या का धु ंधलका घेर चुका होगा सूया को / और कहीं दुबका तम तत्पर होगा अपना आमधपत्य जमाने को तब, मैं आऊं गा आलोक मबखेरने लेमकन / तब तक तुम बुझने न देना दीपक की थरथराती लौ को...!--
पहाड़ के नाम------------------
तुमने प्रकृ मत का वरदहस्त पाकर पाया अपना अमस्तत्व पहाड़ के रूप में और / प्रस्तुत मकया खुद को अपने स्वभाव की तरह लेमकन क्या मालूम है तुम्हें मक मवशाल काया के अलावा कु छ भी न हो सका तुम्हारा, न मकसी का अपनापन न जीवन का एहसास और न ही अपने बने रहने की जरूरत ही मकसी को समझा पाए तुम,
Vol. 3, issue 27-29, July-September 2017. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017