Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
शाम के धु ँधलके मे लड़खड़ाते सूरज की तरह , कु छ वही आवाज़ें जो पीले बादलों के इशारों पर नाचतीं थीं , रोशनी के चमगादड़ों से ‘ भीख ’ मांग कर रोमटयाँ खातीं थीं , रोज अंधेरे अपनी चुप्पी की चींखों में एक नयी उम्मीद का पररन्दा पालतीं थीं , शायद कहीं उनकी कु छ जड़ें बाकी थीं कु छ बचपन , कु छ यादें , कु छ घर-आंगन मजन्हे तलाशते हुए वे मकसी बीहड़ में भटक गयीं थीं वे बीहड़ उनकी आँखों में चमकते थे बेचैन साँपों की तरह साँसों में रेंगते थे सोचों के रेशे-रेशे में छीली हकीकतों की तरह चुभते थे और मफर बहते थे उनकी ही रगों में ज़हरीला ख़ून बनकर , कु छ बेकफ़न आवाज़ें आज भी कभी-कभी मदखाई पड़ती हैं अपने ही रक्त-तालाब में तैरतीं-डूबती हुई।
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उनसे अक्सर कहा जाता ( युगों-युगों से ) मक वे डूबते हुए नाचें और नाचते हुए डूबें , वे नाचती भी थीं डूबतीं भी थीं , मजतना ही नाचतीं उतना ही डूबतीं और मजतना ही डूबतीं उतना ही उन्हें नाचने के मलए कहा जाता .
इस तरह उनके नाचने और डूबने के मसलमसले में रोशनी के चमगादड़ों ने फ़रमान सुनाया- ‘ तुम्हारे नाच की ‘ कीमत ’ तुम्हे बकायदा दी जाएगी ( एक कु मटल हंसी ) ग़र नाचोगी तो जी पाओगी वरना तो वैसे ही मारी जाओगी .’ अब तो आलम यह था मक जब भी वो नाचतीं उतना ही डूबतीं जातीं उतना ही डूबतीं जातीं
कु छ जली हुई आवाज़ें टूटे खंडहरों के वीरानों में गू ंजती थीं , धूल से सने कटे-मपटे बारूदी चेहरे छटपटाते थे उनकी गू ंजों की अनुगू ँज बनकर , नाचते कदमों से ररसते लहू में उनकी स्याही के मवद्रोही अक्षर भभकते थे , मजन्हें दबा मदया जाता था समय की सुलगती पीड़ा समझकर कत्ल होता था हर बार एक नए अक्षर का ....... एक पुराने स्वप्न का ........ एक मासूम पररन्देका .........
कु छ आवाज़ों को आग से नहलाया गया कु छ को पानी की मचंगाररयों से जलाया गया कु छ को ममट्टी के तहखानों में गाड़ मदया गया , कु छ को उस समय तक नचाया गया जब तक मक वो अपनी ही पहचान भूल नहीं जाती
मफर इन बेकफ्न आवाज़ों के नव-नव स्वरूपों को
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017