१) भारतेंदु पूिक सहंदी नािकों का स्िरुप:- भारतीय नाट्य मंच का रचनाकाल मनधााररत करना एक जमटल समस्या है । इस कला प्रियन मकसी एक व्यमक्त द्वारा एक समय में हुआ होगा । भारतीय परंपरा भरत को ही नाट्यशास्त्र का रचमयता मानती है । मकन्तु भारतीय इमतहास में अनेक भरतों का होना काल-मनधाारि में एक उलझन उत्पन्न कर देता है । मजसका समाधान अभी तक नहीं हो पाया है । प. मनमोहन घोर्ष भार्षाशास्त्रीय, छंदशास्त्र भौगोमलक तथ्यों के आधार पर कहते है मक“ नाट्यशास्त्र के प्रियन का समय ई. पू. प्रथम शताब्दी तथा ई. मद्वतीय शताब्दी के मध्य मानते है” आज नाटकों में जो भार्षा शैली अपनाई जाती हैं । वह संस्कृ त और प्राकृ त भार्षा से आई हैं । इस बात के आधार पर नाट्यशास्त्र या नाटक रचना का बहुत ही प्राचीन माना जाता है । आधुमनक युग के प्रारंभ में जो नाटक मलखे गये वह भारतेंदु युग पूवा नाटक के नाम से मवख्यान हैं । आधुमनक युग लोक मानस को लेकर
Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN: 2454-2725
नाटक अपने प्रकृ मत में सामूमहक है । इसे एक साथ अनेक लोग देख सकते । इसमलए इस मवधा को आज जीवंत मवधा माना जाता है । आधुमनक महंदी नाटकों का मचंतन का स्वरुप पर मचंतन करते समय इस काल के नाटकों को भाग में बांटा गया है –
1. भारतेंदु पूवा महंदी नाटकों का स्वरुप 2. भारतेंदु युगीन महंदी नाटकों का स्वरुप 3. प्रसाद युगीन महंदी नाटकों का स्वरुप 4. प्रसादोत्तर महंदी नाटकों का स्वरुप 5. साठोत्तरी महंदी नाटकों का स्वरुप
१) भारतेंदु पूिक सहंदी नािकों का स्िरुप:- भारतीय नाट्य मंच का रचनाकाल मनधााररत करना एक जमटल समस्या है । इस कला प्रियन मकसी एक व्यमक्त द्वारा एक समय में हुआ होगा । भारतीय परंपरा भरत को ही नाट्यशास्त्र का रचमयता मानती है । मकन्तु भारतीय इमतहास में अनेक भरतों का होना काल-मनधाारि में एक उलझन उत्पन्न कर देता है । मजसका समाधान अभी तक नहीं हो पाया है । प. मनमोहन घोर्ष भार्षाशास्त्रीय, छंदशास्त्र भौगोमलक तथ्यों के आधार पर कहते है मक“ नाट्यशास्त्र के प्रियन का समय ई. पू. प्रथम शताब्दी तथा ई. मद्वतीय शताब्दी के मध्य मानते है” आज नाटकों में जो भार्षा शैली अपनाई जाती हैं । वह संस्कृ त और प्राकृ त भार्षा से आई हैं । इस बात के आधार पर नाट्यशास्त्र या नाटक रचना का बहुत ही प्राचीन माना जाता है । आधुमनक युग के प्रारंभ में जो नाटक मलखे गये वह भारतेंदु युग पूवा नाटक के नाम से मवख्यान हैं । आधुमनक युग लोक मानस को लेकर
बहुत ही चमचात नाटक माने जाते हैं । नाटक को लोकवृत का अनुकरि माना जाता हैं । लोकवृत उसे कहते है जो समाज का अनुकरि करके रंगमंच के माध्यम से अमभव्यक्त कला है । क्योंमक नाटकों में सामामजक आचरि की सहज अमभव्यमक्त पाई जाती हैं । भारतेंदु यूग पूवा नाटकों में अंग्रेजों द्वारा स्थामपत प्रथम‘ रंगशाला’’ प्ले हाउस’ नाम से सन 1776 ई. में कलकत्ते में स्थामपत की गयी थी । इसके बाद सन 1777 ई. में‘ कलकत्ता मथयेटर’ की स्थापना हुई । इसी मथयेटर में सन 1789 ई. में कामलदास के‘ अमभज्ञानशाकु ं तलम’ का अंग्रेजी में अमभनय प्रस्तुत मकया गया है । इन अमभनय शालाओंमें भारत में रहने वाले सभी मशमक्षत समुदाय का ध्यान नाट्यकला की ओर आकृ से मकया था । सर मवमलयम जोन्स द्वारा फोटा मवमलयम कॉलेज में‘ शकु ं तला’ के कई अनुवाद प्रस्तुत मकये जा चुके थे । शेक्समपयर के नाटकों का अध्ययन भारतीयों द्वारा प्रमतमदन मदलचस्पी के साथ हो रहा था । आज नाट्य संस्कार अब भी भारतीय कलाकारों के मानस में मवधमान हैं । इसमलए बाबू गुलाब राय कहते है मक –“ नाटक सामामजकों की अमभवृमत्तयों काया व्यवहारों का अमभनय के माध्यम से रंगमंच पर उपमस्थत करता है, मजसे देखकर सामामजकों का मन प्रसादन होता है । नाटक में सभी वगों जामतयों की अवस्था, गुि, रूमच के अनुसार सामग्री उपलब्ध रहती हैं । नाटक की कथा वस्तु में मजन धमा, क्रीडा, श्रम, हास्य, युद्ध एवं काम आमद भावों की अमभव्यंजना रहती हैं
Vol. 3, issue 27-29, July-September 2017. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017