Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN: 2454-2725
आधुसनक सहंदी नािकों के सचंतन का स्िरुप
अजय कु मार िरोज पी-एच. डी.( शोधाथी)
प्रदशानकारी कला मवभाग म. गां. अं. महं. मव. वधाा, महाराष्ट्र 442005
ई-मेल: aksaroj2510 @ gmail. com मो ॰ 7888275645
पररच्छेद के अंतगात मलखते हैं मक – मवलक्षि बात यह है मक आधुमनक गध – सामहत्य की परंपरा का प्रवतान नाटकों से हुआ” इस बात पर हेनरी डब्ल्यू वेल्थ भारत का प्राचीन नाटक में मलखते है मक घटनाओं का कृ त भी मकतना मवलक्षि हैं । करुि रस अपनें में तो एक ही है लेमकन मवमभन्न पररमस्थमतयों में उनका अलग – अलग रूप हो जाता है जैसे पानी के अलग – अलग रूप भंवर, बुलबुले, तरंगे तो है लेमकन वास्तव में वे सब पानी ही है । इसमलए नाटक एक कला है जहां शब्दों को इस प्रकार से संगमठत मकया जाता है मक उसे प्रतुत करके आनंद की प्रामप्त तो होनी ही हैं उसके साथ – साथ अनुभवों के माध्यम से ज्ञान का मवस्तार होना हैं । मजस प्रकार शब्दों के मबना सामहत्य नहीं रचा जा सकता उसी प्रकार रंगों रेखाओं के मबना मचत्रकला की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार इस जीवंत तत्वों के मबना इन प्रदशानकारी कलाओं के अमस्तत्व की कोई पहचान नहीं की जा सकती । लेमकन सामहत्य और प्रदशानकारी कलाओं को अनुभूत करने की प्रमक्रया ठीक एक-दूसरे के मवपरीत मानी जाती है । नाटक यह मवधा प्रकृ मत से संमश्लसे मवधा मानी जाती हैं । इसी बात पर भरत मुमन जो कहा था वह इस प्रकार है“ न ऐसा कोई ज्ञान है, न मशल्प है, न मवधा है, न ऐसी कोई कला है, न कोई योग है न कोई काया ही है जो इस नाट्य में प्रदमशात न मकया जाता हो” नाटक यह मवधा इस तरह मानी जाती है इसमें ऐसा कोई ज्ञान न हो जो की प्रस्तुत नहीं हुआ हो । मसंध, कला, योग इन सभी बातों का प्रयोग नाटक में होता है । इसके प्रस्तुमतकरि में अनेक कलाकारों सामूमहक योगदान होता है । जैसे – नाटक, लेखक, मनदेशक, अमभनेता, सज्जा-सहायक, मंच व्यवस्थापक, प्रकाश चालक तथा इनके पीछे काम करने वाले अनेक मशल्पी तथा कारीगर । इन सभी कलाकारों के मबना नाटक अधूरा हैं । उनके रचना में इन सबको सहयोग गुिात्मक होता है । दूसरी ओर
आधुमनक महंदी रंगमंच की शुरुआत सन 1857 से मानी जाती हैं । यह समय महंदी सामहत्य के इमतहास में भारतेंदु युग नाम पररमचत हैं । सामहत्य और रंगमंच का बहुत ही करीब ररश्ता हैं । यमद सामहत्य की पहली अमभव्यमक्त मवधा कमवता है तो नाटक एक उसी अमभव्यक्त मवधा को जीवंत रूप देने में सशक्त मवधा है । भारतीय नाटक की उत्पमत्त देखी जाए तो यह उत्पमत्त कब-कै से एवं मकन उपादानों के संयोग से हुई इस मवर्षय पर मवद्वानों में मंतव्य नहीं है । परन्तु मकसी मवद्वान् का मत भी अप्रमामिक मसद्ध करना अत्यंत कमठन हैं । क्योंमक नाटक समाज आईना( दपाि) होता हैं । समाज मनरंतर पररवतान शील रहता हैं । आज का सामामजक पररवेश अतीत के सामामजक पररवेश काफी अमधक बदला हैं । प्रेमचंद ने भी सामहत्य की बहुत सी पररभार्षाए दी है पर मेरे मवचार से उनकी सवोत्तम पररभार्षा जीवन की आलोचना है । डॉ. नगेन्द्र के शब्दों में“ सामहत्य का जीवन से गहरा संबंध है: एक मक्रया के रूप में दूसरा प्रमक्रया के रूप में । मक्रया रूप में वह जीवन की आमभव्यमक्त है प्रमतक्रया रूप में उसका मनम ाता और पोर्षक” इसमलए सामहत्य मानव सभ्यता की मवकास का घोतक माना जाता है । आधुमनक सामहत्य के आरम्भ में ही नाटक इस मवधा का प्रारंभ हुआ । नाटक मवधा का उदभव और मवकास का मववेचन करते हुए रामचंद्र शुक्ल इमतहास में“ आधुमनक गध – सामहत्य परम्परा का प्रवतान शीर्षाक Vol. 3, issue 27-29, July-September 2017. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017