अपनी ओर से इस विभाजन की सीमा-रेखा को परिवर्तित नहीं कर सकता और न नयायपालिका ऐसा कर सकती है । कयोंकि , जैसा बहुत सटीक रूप से कहा गया है-
'' अदालतें मामूली हेर-फेर कर सकती हैं , प्लतसरालपत नहीं कर सकतीं । वे पूर्व वयाखयाओं को नए तकवो का सवरूप दे सकती हैं , नए दृकषटकोण प्सतुत कर सकती हैं , वे सीमांत मामलों में विभाजक रेखा को थोड़ा खिसका सकती हैं , परंतु ऐसे अवरोध हैं , जिनहें वे पार नहीं कर सकती , शककतयों का सुलनकशचत निर्धारण है , जिनहें वे पुनरावंटित नहीं कर सकतीं । वे वर्तमान शककतयों का क्षेत्र बढ़ा सकती हैं , परंतु एक प्ालधकारी को सपषट रूप से प्िान की गई शककतयों को किसी अनय प्ालधकारी को हसतांतरित नहीं कर सकतीं ।'' इसलिए , संघवाद को कमजोर बनाने का पहला आरोप सवीकार्य नहीं है ।
दूसरा आरोप यह है कि केंद्र को ऐसी शककतयां प्िान की गई हैं , जो राजयों की शककतयों का
अतिक्रमण करती हैं । यह आरोप सवीकार किया जाना चाहिए । परंतु केंद्र की शककतयों को राजय की शककतयों से ऊपर रखने वाले प्ावधानों के लिए संविधान की निंदा करने से पहले कुछ बातों को धयान में रखना चाहिए । पहली यह कि इस तरह की अभिभावी शककतयां संविधान के सामानय सवरूप का अंग नहीं हैं । उनका उपयोग और प्चालन सपषट रूप से आपातकालीन कसरलतयों तक सीमित किया गया है ।
धयान में रखने योगय दूसरी बात है- आपातकालीन कसरलतयों से निपटने के लिए कया हम केंद्र को अभिभावी शककतयां देने से बच सकते हैं ? जो लोग आपातकालीन कसरलतयों में भी केंद्र को ऐसी अभिभावी शककतयां दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं वे इस विषय के मूल में छिपी समसया से ठीक से अवगत प्तीत नहीं होते । इस समसया का सुविखयात पत्रिका ' द राउंड टेबल ' के दिसंबर 1935 के अंक में एक लेखक द्ारा इतनी सपषटता से बचाव किया गया है कि मैं उसमें से यह उद्धरण देने के लिए क्षमाप्ारथी नहीं हूं । लेखक कहते हैं-
'' राजनीतिक प्णालियां इस प्श्न पर अवलंबित अधिकारों और कर्तवयों का एक लमश्ण हैं कि एक नागरिक किस वयककत या किस प्ालधकारी के प्लत निषिावान् रहे । सामानय क्रियाकलापों में यह प्श्न नहीं उठता , कयोंकि सुचारु रूप से अपना कार्य करता है और एक वयककत अमुक मामलों में एक प्ालधकारी और अनय मामलों में किसी अनय प्ालधकारी के आदेश का पालन करता हुआ अपने काम निपटाता है । परंतु एक आपातकालीन कसरलत में प्लतद्ंद्ी दावे पेश किए जा सकते हैं और ऐसी कसरलत में यह सपषट है कि अंतिम प्ालधकारी के प्लत निषिा अविभाजय है । निषिा का मुद्ा अंतत : संविधियों की नयालयक वयाखयाओं से लनणथीत नहीं किया जा सकता । कानून को तथयों से समीचीन होना चाहिए , अनयरा वह प्भावी नहीं होगा । यदि सारी प्लक्रयातमक औपचारिकताओं को एक तरफ कर दिया जाए तो निरा प्श्न यह होगा कि कौन सा प्ालधकारी एक नागरिक की अवशिषट निषिा का हकदार है । वह केंद्र है या संविधान राजय ?''
इस समसया का समाधान इस सवाल , जो कि समसया का मर्म है , के उत्र पर निर्भर है । इसमें कोई संदेह नहीं कि अधिकांश लोगों की राय में एक आपातकालीन कसरलत में नागरिक को अवशिषट निषिा अंगभूत राजयों के बजाय केंद्र को लनिवेलशत होनी चाहिए , कयोंकि वह केंद्र ही है , जो सामूहिक उद्ेशय और संपूर्ण देश के सामानय हितों के लिए कार्य कर सकता है ।
एक आपातकालीन कसरलत में केंद्र की अभिभावी शककतयां प्िान करने का यही औचितय है । वैसे भी , इन आपातकालीन शककतयों से अंगभूत राजयों पर कौन सा दायितव थोपा गया है कि एक आपातकालीन कसरलत में उनहें अपने सरानीय हितों के साथ-साथ संपूर्ण राषट्र के हितों और मतों का भी धयान रखना चाहिए- इससे अधिक कुछ नहीं । केवल वही लोग , जो इस समसया को समझे नहीं हैं , उसके खिलाफ शिकायत कर सकते हैं ।
यहां पर मैं अपनी बात समापत कर देता , परंतु हमारे देश के भविषय के बारे में मेरा मन इतना परिपूर्ण है कि मैं महसूस करता हूं , उस पर अपने कुछ विचारों को आपके सामने रखने के लिए इस अवसर का उपयोग करूं । 26 जनवरी , 1950 को भारत एक सवतंत्र राषट्र होगा । उसकी सवतंत्रता का भविषय कया है ? कया वह अपनी सवतंत्रता बनाए रखेगा या उसे फिर खो देगा ? मेरे मन में आने वाला यह पहला विचार है ।
यह बात नहीं है कि भारत कभी एक सवतंत्र देश नहीं था । विचार बिंदु यह है कि जो सवतंत्रता उसे उपलबध थी , उसे उसने एक बार खो दिया था । कया वह उसे दूसरी बार खो देगा ? यही विचार है जो मुझे भविषय को लेकर बहुत चिंतित कर देता है । यह तथय मुझे और भी वयलरत करता है कि न केवल भारत ने पहले एक बार सवतंत्रता खोई है , बकलक अपने ही कुछ लोगों के विशवासघात के कारण ऐसा हुआ है ।
सिंध पर हुए मोहममि-बिन-कासिम के हमले से राजा दाहिर के सैनय अधिकारियों ने मुहममि- बिन-कासिम के दलालों से रिशवत लेकर अपने राजा के पक्ष में लड़ने से इनकार कर दिया था । वह जयचंद ही था , जिसने भारत पर हमला
tuojh 2025 49