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भारतीय गणतंत् की हीरक जयंती

- '' राषट्र के उपयोग के लिए जिन संसराओं की सरापना की गई , उनहें अपने कृतयों के लिए उत्रदायी बनाने के लिए भी उनके संचालन के लिए नियुकत लोगों के अधिकारों के बारे में भ्रांत धारणाओं के अधीन यह विचार कि उनहें छेड़ा या बदला नहीं जा सकता , एक निरंकुश राजा द्ारा सत्ा के दुरुपयोग के खिलाफ एक सराहनीय प्ावधान हो सकता है , परंतु राषट्र के लिए वह बिलकुि बेतुका है । फिर भी हमारे अधिवकता और धर्मगुरु यह मानकर इस सिद्धांत को लोगों के गले उतारते हैं कि पिछली पीढिमयों की समझ हमसे कहीं अच्ी थी । उनहें वे कानून हम पर थोपने का अधिकार था , जिनहें हम बदल नहीं सकते थे और उसी प्कार हम भी ऐसे कानून बनाकर उनहें भावी पीढिमयों पर थोप सकते हैं , जिनहें बदलने का उनहें भी अधिकार नहीं होगा । सारांश यह कि धरती पर मृत वयककतयों का हक है , जीवित वयककतयों का नहीं ।
मैं यह सवीकार करता हूं कि जो कुछ जेफरसन ने कहा , वह केवल सच ही नहीं , परम सतय है । इस संबंध में कोई संदेह हो ही नहीं सकता । यदि संविधान सभा ने जेफरसन के उस सिद्धांत से भिन्न रुख अपनाया होता तो वह लनकशचत रूप से दोष बकलक निंदा की भागी होती । परंतु मैं पूछता हूं कि कया उसने सचमुच ऐसा किया है ? इससे बिलकुि विपरीत । कोई केवल संविधान के संशोधन संबंधी प्ावधान की जांच करें । सभा न केवल कनाडा की तरह संविधान संशोधन संबंधी जनता के अधिकार को नकारने के जरिए या आसट्रेलिया की तरह संविधान संशोधन को असाधारण शतवो की पूर्ति के अधीन बनाकर उस पर अंतिमता और अमोघता की मुहर लगाने से बची है , बकलक उसने संविधान संशोधन की प्लक्रया को सरलतम बनाने के प्ावधान भी किए हैं ।
मैं संविधान के किसी भी आलोचक को यह साबित करने की चुनौती देता हूं कि भारत में आज बनी हुई कसरलतयों जैसी कसरलतयों में दुनिया की किसी संविधान सभा ने संविधान संशोधन की इतनी सुगम प्लक्रया के प्ावधान किए हैं ! जो लोग संविधान से असंतुषट हैं , उनहें केवल
दो-तिहाई बहुमत भी प्ापत करना है और वयसक मताधिकार के आधार पर यदि वे संसद में दो- तिहाई बहुमत भी प्ापत नहीं कर सकते तो संविधान के प्लत उनके असंतोष को जन-समर्थन प्ापत है , ऐसा नहीं माना जा सकता ।
संवैधानिक महतव का केवल एक बिंदु ऐसा है , जिस पर मैं बात करना चाहूंगा । इस आधार पर गंभीर शिकायत की गई है कि संविधान में केंद्रीयकरण पर बहुत अधिक बल दिया गया है और राजयों की भूमिका नगरपालिकाओं से अधिक नहीं रह गई है । यह सपषट है कि यह दृकषटकोण न केवल अतिशयोककतपूर्ण है , बकलक संविधान के अभिप्ायों के प्लत भ्रांत धारणाओं पर आधारित है । जहां तक केंद्र और राजयों के बीच संबंध का सवाल है , उसके मूल सिद्धांत पर धयान देना आवशयक है । संघवाद का मूल सिद्धांत यह है कि केंद्र और राजयों के बीच विधायी और कार्यपालक शककतयों का विभाजन केंद्र द्ारा बनाए गए किसी कानून के द्ारा नहीं बकलक सवयं संविधान द्ारा किया जाता है । संविधान
की वयवसरा इस प्कार है । हमारे संविधान के अंतर्गत अपनी विधायी या कार्यपालक शककतयों के लिए राजय किसी भी तरह से केंद्र पर निर्भर नहीं है । इस विषय में केंद्र और राजय समानाधिकारी हैं ।
यह समसया कठिन है कि ऐसे संविधान को केंद्रवादी कैसे कहा जा सकता है । यह संभव है कि संविधान किसी अनय संघीय संविधान के मुकाबले विधायी और कार्यपालक प्ालधकार के उपयोग के विषय में केंद्र के लिए कहीं अधिक विसतृत क्षेत्र निर्धारित करता हो । यह भी संभव है कि अवशिषट शककतयां केंद्र को दी गई हो , राजयों को नहीं । परंतु ये वयवसराएं संघवाद का मर्म नहीं है । जैसा मैंने कहा , संघवाद का प्मुख लक्षण केंद्र और इकाइयों के बीच विधायी और कार्यपालक शककतयों का संविधान द्ारा किया गया विभाजन है । यह सिद्धांत हमारे संविधान में सन्निहित है । इस संबंध में कोई भूल नहीं हो सकती । इसलिए , यह कलपना गलत होगा कि राजयों को केंद्र के अधीन रखा गया है । केंद्र
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