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भारतीय गणतंत् की हीरक जयंती

करने एवं पृथवीराज से लड़ने के लिए मुहममि गोरी को आमंत्रित किया था और उसे अपनी व सोलंकी राजाओं को मदद का आशवासन दिया था । जब शिवाजी हिंदुओं की मुककत के लिए लड़ रहे थे , तब कोई मराठा सरदार और राजपूत राजा मुगल शहंशाह की ओर से लड़ रहे थे ।
जब लरिटिश सिख शासकों को समापत करने की कोशिश कर रहे थे तो उनका मुखय सेनापति गुलाबसिंह चुप बैठा रहा और उसने सिख राजय को बचाने में उनकी सहायता नहीं की । 1857 में जब भारत के एक बड़े भाग में लरिटिश शासन के खिलाफ सवातंत्र्य युद्ध की घोषणा की गई थी तब सिख इन घटनाओं को मूक दर्शकों की तरह खड़े देखते रहे ।
कया इतिहास सवयं को दोहराएगा ? यह वह विचार है , जो मुझे चिंता से भर देता है । इस तथय का एहसास होने के बाद यह चिंता और भी गहरी हो जाती है कि जाति व धर्म के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अतिरिकत हमारे यहां विभिन्न और विरोधी विचारधाराओं वाले राजनीतिक दल होंगे । कया भारतीय देश को अपने मताग्हों से ऊपर रखेंगे या उनहें देश से ऊपर समझेंगे ? मैं नहीं जानता । परंतु यह तय है कि यदि पार्टियां अपने मताग्हों को देश से ऊपर रखेंगे तो हमारी सवतंत्रता संकट में पड़ जाएगी और संभवत : वह हमेशा के लिए खो जाए । हम सबको दृढ़ संकलप के साथ इस संभावना से बचना है । हमें अपने खून की आखिरी बूंद तक अपनी सवतंत्रता की रक्षा करनी है ।
26 जनवरी , 1950 को भारत इस अर्थ में एक प्जातांत्रिक देश बन जाएगा कि उस दिन से भारत में जनता की जनता द्ारा और जनता के लिए बनी एक सरकार होगी । यही विचार मेरे मन में आता है । उसके प्जातांत्रिक संविधान का कया होगा ? कया वह उसे बनाए रखेगा या उसे फिर से खो देगा ? मेरे मन में आने वाला यह दूसरा विचार है और यह भी पहले विचार जितना ही चिंताजनक है ।
यह बात नहीं है कि भारत ने कभी प्जातंत्र को जाना ही नहीं । एक समय था , जब भारत गणतंत्रों से भरा हुआ था और जहां राजसत्ाएं थीं
वहां भी या तो वे निर्वाचित थीं या सीमित । वे कभी भी निरंकुश नहीं थीं । यह बात नहीं है कि भारत संसदों या संसदीय क्रियाविधि से परिचित नहीं था । बौद्ध भिक्षु संघों के अधययन से यह पता चलता है कि न केवल संसदें- कयोंकि संघ संसद के सिवाय कुछ नहीं थे- थीं बकलक संघ संसदीय प्लक्रया के उन सब नियमों को जानते और उनका पालन करते थे , जो आधुनिक युग में सर्वविदित है ।
सदसयों के बैठने की वयवसरा , प्सताव रखने , कोरम कवहप , मतों की गिनती , मतपत्रों द्ारा वोटिंग , निंदा प्सताव , नियमितीकरण आदि संबंधी नियम चलन में थे । यद्लप संसदीय प्लक्रया संबंधी ये नियम बुद्ध ने संघों की बैठकों पर लागू किए थे , उनहोंने इन नियमों को उनके समय में चल रही राजनीतिक सभाओं से प्ापत किया होगा ।
भारत ने यह प्जातांत्रिक प्णाली खो दी । कया वह दूसरी बार उसे खोएगा ? मैं नहीं जानता , परंतु भारत जैसे देश में यह बहुत संभव है- जहां लंबे समय से उसका उपयोग न किए जाने को उसे एक बिलकुल नई चीज समझा जा सकता है- कि तानाशाही प्जातंत्र का सरान ले ले । इस नवजात प्जातंत्र के लिए यह बिलकुल संभव है कि वह आवरण प्जातंत्र का बनाए रखे , परंतु वासतव में वह तानाशाही हो । चुनाव में महाविजय की कसरलत में दूसी संभावना के यथार्थ बनने का खतरा अधिक है ।
प्जातंत्र को केवल बाह् सवरूप में ही नहीं बकलक वासतव में बनाए रखने के लिए हमें कया करना चाहिए ? मेरी समझ से , हमें पहला काम यह करना चाहिए कि अपने सामाजिक और आर्थिक लक्यों को प्ापत करने के लिए निषिापूर्वक संवैधानिक उपायों का ही सहारा लेना चाहिए । इसका अर्थ है , हमें क्रांति का खूनी रासता छोड़ना होगा । इसका अर्थ है कि हमें सविनय अवज्ञा आंदोलन , असहयोग और सतयाग्ह के तरीके छोड़ने होंगे । जब आर्थिक और सामाजिक लक्यों को प्ापत करने का कोई संवैधानिक उपाय न बचा हो , तब असंवैधानिक उपाय उचित जान पड़ते हैं । परंतु जहां संवैधानिक उपाय खुले हों , वहां इन असंवैधानिक उपायों का कोई औचितय
नहीं है । यह तरीके अराजकता के वयाकरण के सिवाय कुछ भी नहीं हैं और जितनी जलिी इनहें छोड़ दिया जाए , हमारे लिए उतना ही अच्ा है ।
दूसरी चीज जो हमें करनी चाहिए , वह है जलॉन सटुअर्ट मिल की उस चेतावनी को धयान में रखना , जो उनहोंने उन लोगों को दी है , जिनहें प्जातंत्र को बनाए रखने में दिलचसपी है , अर्थात् '' अपनी सवतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विशवास करके उसे इतनी शककतयां प्िान न कर दें कि वह संसराओं को नषट करने में समर्थ हो जाए ।''
उन महान वयककतयों के प्लत कृतज्ञता वयकत करने में कुछ गलत नहीं है , जिनहोंने जीवनर्पयत देश की सेवा की हो । परंतु कृतज्ञता की भी कुछ सीमाएं हैं । जैसा कि आयरिश देशभकत डेनियल ओ कलॉमेल ने खूब कहा है , '' कोई पुरूष अपने सममान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता , कोई महिला अपने सतीतव की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई राषट्र अपनी सवतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता ।'' यह सावधानी किसी अनय देश के मुकाबले भारत के मामले में अधिक आवशयक है , कयोंकि भारत में भककत या नायक-पूजा उसकी राजनीति में जो भूमिका अदा करती है , उस भूमिका के परिणाम के मामले में दुनिया का कोई देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता । धर्म के क्षेत्र में भककत आतमा की मुककत का मार्ग हो सकता है , परंतु राजनीति में भककत या नायक पूजा पतन और अंतत : तानाशाही का सीधा रासता है ।
तीसरी चीज जो हमें करनी चाहिए , वह है कि मात्र राजनीतिक प्जातंत्र पर संतोष न करना । हमें हमारे राजनीतिक प्जातंत्र को एक सामाजिक प्जातंत्र भी बनाना चाहिए । जब तक उसे सामाजिक प्जातंत्र का आधार न मिले , राजनीतिक प्जातंत्र चल नहीं सकता । सामाजिक प्जातंत्र का अर्थ कया है ? वह एक ऐसी जीवन-पद्धति है जो सवतंत्रता , समानता और बंधुतव को जीवन के सिद्धांतों के रूप में सवीकार करती है ।'
( रुद्रांक्षु मुखजथी द्ारा संपादित पुसतक ' भारत के महान भाषण ' से साभार ।)
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