Jan 2024_DA | Page 48

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जिसे वैश्वीकरण ने उपभोग , सौनियमा और खुशहाली ्की जगह ्के रूप में प्रसतुत द्कया । लेद्कन गांव ्की जो छवि स्ी्ककृत हिनिी साहितय में रची गई थी , दलित विषय्क रचना्कारों ने उसे बििल ्कर रख दिया । गांव ्की द्द्रदूपताओं ्का दचत्ण सिर्फ दलित आत्मकथाओं में ही नहीं , दलित ्कद्ताओं में भी ्काफी मिलता है । ्कुछ दलित चिन्तकों ने डा . आंबिेड्कर ्के चिनतन से इस्के लिए त्क्फ भी ढूँढ दन्काला कयोंद्क डा . आंबिेड्कर ने भी दलितों ्को शहर ्की ओर रुख ्करने ्को ्कहा था । द्कनतु वैश्वीकरण ्के परिवेश में भी दलित विषय्क रचनाशीलता ने बिहुत शीघ्र ही यह भी पहचान लिया द्क गांव से सभी पीछा नहीं छुड़ा स्कते और आज ्के शहर में भी
अवमानना पीछा नहीं छोड़ रही है । दलित विषय्क आत्मकथाओं में शहर ्के अनुभव ्कम मादममा्क नहीं हैं । अपने-अपने पिंजरे , तिरस्ककृत या जदू्न जैसी आत्मकथा इसी तरय ्को प्रमाणित ्करती हैं द्क शहर में दलित युवाओं ्को ए्क अलग द्कसम ्की अपमानजन्क अवस्ा ्का सामना ्करना पड़ता है और उस्को झेलने और प्रतिवाद ्करने ्के तर्कों ्के साथ हमेशा सचेत रहना पड़ता है । शहर ्के अपने लाभ हैं , द्कनतु समसया ्का समाधान तबि त्क नहीं है , जबि त्क समानता इस रूप में स्ादपत न हो द्क गांव त्क उस्का पदूरा प्रसार हो ।
सम्कालीन दलित विषय्क साहितय में शहर में अवमानना से मुषकत ्की उ्मीि ्के टूटने ्की
छवियाँ ्कई रचनाओं में उभर ्कर आई हैं । जयप्र्काश ्किमाम ्की नो बिार ्कहानी इसी बिात ्को प्रमाणित ्करती है द्क जाति-वय्स्ा ्की जड़ें इतनी गहरी हैं द्क द्कतनी भी पढ़ाई-लिखाई हो जाए , द्कतने भी ऊंचे उठ जाएं , द्कतने भी शहरी हो जाएं , इससे मुषकत स्भ् नहीं हो पा रही है । ए्क दशदक्त दलित युवा शादी ्के विज्ञापन में नो ्कासट बिार देख्कर यह सोचता है द्क यह परिवार सं्कीर्णताओं से मुकत होगा , द्कनतु ्कहानी ्का अनत अवमानना ्की निरनतरता में ही होती है । सुरंग ( दयाननि बिटोही ), मुखौटों ्के बिीच ( अजय नावरिया ), दबिचछू ( पदूनम तुषामड़ ), भंगन डॉकटरानी ( सुधीर सागर ), महदू ( ्कैलाश वानखेड़े ), आप्की जात छोटी है ( विपिन
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