Feb 2025_DA | Page 7

आयोजन करनरे के द्लए कद्तपय अनतः एवं वाह्य साक्यदों के आधार पर उनके जनम एवं मृतयु की पुनीत द्तद्रयदों को ढूंढ लरेनरे का प्रयास कर लरेतरे हैं । ऐसरे ही प्रयास का परिणाम है द्क संत द्शिोमद्ण गुरु रैदास का जनम संवत 1433 विक्रमी के माघ मास की पूद्ण्थमा का िद्ववार द्दन मानय द्कया गया है । उनकी महासमाद्ध संवत 1584 विक्रमी की चैत्र ककृष्ण चतुर्दशी द्तद्र ्वीककृत है । इन समयदों का उल्लेख अधोद्लद्खत प्रकार सरे भी द्कया जाता है- चौदह सौ तैंतीस की माघ सुदी पंदरास । दुखियों के कलयाि हित प्गटे श्ी रैदास ।। पन्द्रह सौ चऊरासी के दिन चीतौरे भई भीर । जर-जर देह कंचन भई , रवि रवि मिलयो शरीर ।
संत ्वभाव की शीतलता का भी एक रह्य होता है । अपनरे आद्वभा्थव के द्लए संतगण सदैव शीतल समयदों का चयन करतरे हैं । माघ का महीना शीतल होता है । न अद्धक ठंडा और न ही अद्धक ऊष्ण । इसी तरह चैत्र का महीना भी ऊष्णकाल का प्राि्भ होनरे सरे मधुर ही होता है । संत द्शिोमद्ण गुरु रैदास नरे अपनरे आवागमन के द्लए इन महीनदों का चयन अपनरे ्वभाव के अनुरूप ही द्कया था । चतुर्दशी और पूद्ण्थमा , दो ऐसी द्तद्रयां हैं द्जनका द्हनदू संस्कृद्त में आधयासतमक महतव भी है । इन द्तद्रयदों पर स्ान , दान , व्रत आद्द के अनुष्ठान होतरे हैं । गुरु रैदास ्वयं में एक अनुष्ठान ररे , पूद्ण्थमा की तरह पूर्ण ररे । चतुर्दशी की तरह अननत ररे , इसद्लए इन पुणय द्तद्रयदों को प्रककृद्त नरे उनके आद्वभा्थव एवं प्र्रान के द्लए चयद्नत द्कया था । िद्ववार का द्दन सूर्य सरे स्बसनधत होनरे के कारण बड़े महतव का माना जाता है । सूर्य की अरूण शैशवाव्रा द्जतनी ही द्प्रयकर होती है , उसकी प्रौढ़ाव्रा उतनी ही प्रखर और असहय हो जाती है ।
जनम एवं द्तिोधान की द्तद्रयदों की भांद्त गुरु रैदास के जनम ्रान एवं महासमाद्ध ्रल के बािरे में भी लोग द्वद्भन्न प्रकार के तर्क दरेकर उनको अपनरे-अपनरे क्षेत्र सरे स्बसनधत होनरे का उल्लेख करके उनके प्रद्त अपनरे अनुराग को प्रदद्श्थत करनरे का उपरिम करतरे रहतरे हैं , परनतु
गहन समीक्ा के बाद हम यही पातरे हैं द्क उनका जनम काशी ( वाराणसी ) के मंडेसर अथवा माणडुि , बाद में डीह मांडूर तथा माणडव डीह और ( वर्तमान में ) मणडुआडीह का द्भ्टवा नामक द्हनदू चर्मकार जाद्त के ब्ती में स्रत एक इमली के परेड़ के नीचरे हुआ था । कालानति में उसी वृक् के नीचरे बैठ कर गुरु रैदास नरे अपनी साधना की थी । यह ्रान काशी के अतरगृही मार्ग पर स्रत है । मंडेसर या मांडूर या मणडुआडीह का द्भ्टवा नामक इमली के वृक्षों सरे आच्छादित यह ्रान वास्तविक रूप सरे काशी के पंचकोशी या चैरासी कोसी परिरिमा के अनतग्थत आता है । अतरगृही मार्ग , पंचकोशी मार्ग एवं चैरासी कोसी मार्ग काशी के भौगोद्लक एवं आधयासतमक महात्य सरे आबद्ध है ।
द्हनदू स्वाभिमान के प्रतीक द्हनदू राजय मरेवाड़ के द्चत्ौड़गढ़ के तयाग और बद्लदान को स्मान दरेतरे हुए संत द्शिोमद्ण गुरु रैदास नरे द्जस प्रकार अपनरे असनतम समय के द्लए उस ्रान का चयन द्कया था , उसका अद्भप्राय यही था द्क द्हनदु्रान के द्हनदू तो द्हनदूिाज में ही स्वाभिमान एवं स्मान सरे रह सकतरे हैं । उन्होंनरे अपनरे जनम अथवा आद्वभा्थव के द्लए द्जस नगरी का चयन द्कया था वह ” काशी ” तीनदों लोक सरे नयािी कही
जाती है । इस नगरी को द्हनदु्रान के प्रत्येक भू-भाग एवं सभयता-संस्कृद्त का प्रद्तद्नद्धतव तो द्मल ही जाती है , द्वशव के सभी दरेशदों के लोग भी यहां द्कसी न द्कसी अनुपात में सदैव द्वद्यमान द्मलतरे हैं । यही कारण है द्क काशी को द्वशव संस्कृद्त एवं सभयता का केनरि द्बनदु तक कहा जाता है । यह नगरी बाबा द्वशवनाथ की नगरी है जो पुणयसद्लला मां गंगा के त्ट पर अवस्रत है । यहां द्वशव का स्पूण्थ आधयातम- द्चनतन द्मल जाता है । जीवन का असनतम और सववोपरि अभीष््ट ” मुसकत ” यानी आतमा द्ािा बाि्बाि जनम लरेनरे की प्रक्रिया सरे मुकत होना , यहां सहजभाव में प्रभु-ककृपा सरे प्रापत हुआ करता है । इसीद्लए इसरे सपतमुकतपुरियदों में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है । गर्व का द्वषय यह है द्क ऐसी पुनीत नगरी में संत द्शिोमद्ण गुरु रैदास नरे जनम द्लया था ।
कुछ द्वद्ानदों द्ािा तथ्यों सरे पिरे और कलपनाओं का सहारा लरेतरे हुए कहा जाता है द्क गुरु रैदास के परिवार के लोगदों यानी मां एवं द्पता नरे िद्ववार को जनम लरेनरे के आधार पर रैदास जी का नाम ” िद्वदास ” रखा था , परनतु लोगदों नरे उच्ािण दोष के चलतरे उनको ” रैदास कहकर पुकारा अतएव उनको िद्वदास के साथ-साथ रैदास भी
iQjojh 2025 7