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पर्व

आधारित भारतीय संस्कृद्त के रोम-रोम में वैसशवक सामाद्जक समरसता की सोच रची-बसी है । सामाद्जक समरसता का भाव जब तक प्रत्येक वयसकत में नहीं आ जाता , तब तक अनावशयक द्नम्नता-श्रेष्ठता के अद्भमान-सागर में आकणठ डूबी हुई मानव के मनःस्थिति की जड़ता समापत नहीं हो सकेगी और सामाद्जक द्वषमताओं को समापत करनरे के द्लए समाज सुधारकदों द्ािा द्कए जा रहरे प्रयास सकारातमक परिणामदायी नहीं हो सकेंगरे ।
प्रयागराज में जारी अनुसूद्चत जाद्त के बंधुओं को महंत , पीठाधीशवि जैसी प्रद्तसष्ठत द्ज्मरेदारियां
सौपनरे का कार्य जूना अखाड़ा के पीठाधीशवि महरेनरिानंद द्गरि नरे द्कया है । यह सामाद्जक समरसता का एक अनय भाव है । भारत में सामाद्जक समरसता अपरिहार्य है । संत आगरे आए हैं । भारत की संत परंपरा अद्वितीय है । पहलरे भी रामानुज , रामानंद तुलसीदास , कबीर , िद्वदास , सूरदास सद्हत अनरेक संतदों नरे भारतीय ज्ान परंपरा एवं समरसता को समृद्ध द्कया है और आज भी यही कार्य संतदों द्ािा द्कया जा रहा है । भारतीय दर्शन में जाद्त-वर्ग का उल्लेख नहीं है । प्रत्येक वयसकत अद्वितीय एवं अनंत संभावनाओं सरे युकत है । प्रत्येक वयसकत के अंतरंग में रस प्रवाद्हत होता
है । प्रत्येक वयसकत का ्वभाव द्भन्न-द्भन्न होता है । लरेद्कन इस द्वद्भन्नता में वयापत एकता ही भारतीय संस्कृद्त में उपस्रत समरसता है । यूनेस्को नरे काफी समय पहलरे ही कु्भ को द्वद्शष््ट सांस्कृद्तक महतव का आयोजन घोद्षत कर द्दया था और महाकु ंभ सरे सामाद्जक समरसता का संदरेश का प्रवाह पूिरे द्वशव में होगा , इसमें कोई संदरेह नहीं है ।
महाकु ंभ मरेला गौरवशाली संस्कृद्त का अद्भन्न अंग है , जो भारतीय समाज के धाद्म्थक , सांस्कृद्तक और सामाद्जक जीवन के प्रत्येक पहलू को संजोए हुए है । यह मरेला केवल एक धाद्म्थक आयोजन
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