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मञानसिक परिवर्तन ने पञारिभञावषक संज्ञाओं को भी परिवर्तित कर दियञा । प्रदीर्घ समय तक सञामञावजक , आर्थिक आदि दृष्ट से जिनकञा दलन कियञा गयञा , कञािञानतर में उनहें ही दलित कहञा गयञा । जब यह महसूस कियञा जञाने लगञा कि शुद्धि और दलितोद्धञार , दोनों चीजें एक सी नहीं हैं । दलितों की हीन दशञा के लिए सवर्ण समझे जञानेिञािे लोग ही जिममेदञार हैं , जिनहोंने जञावत के करोड़ों वयषकतयों को अछूत बनञा रखञा है । उनहें मञानवतञा कञा अधिकञार देनञा सिणषों कञा
कर्तवय है । इस विचञार को सञामने रखकर आर्य समञाज के कञाय्यकतञा्यओं ने अछूतों के लिए दलित और अछूतों के उद्धञार कञाय्य के लिए दलितोद्धञार की संज्ञा दे दी । तभी से अछूतों की शुद्धि के संदर्भ में दलितोद्धञार संज्ञा प्रचलित हो गई ।
यह बञात अविसमरणीय है कि आर्य समञाज के समञाज सुधञार आंदोलन ने ही दलित- आनदोिन को दलित और दलितोद्धञार जैसे सक्म शबद प्रदञान किए । 1917 से 1924 के मधय स्वामी श्रद्धञाननद दिलिी को केंद्र बनञाकर
दलितोद्धञार के कञाय्य में सिञा्यतमनञा समर्पित रहे I वह ही दलितोद्धञार सभञा के संस्थापक थे । उसी कञाि में दलित-दलितोद्धञार जैसे अभिनव शबद समञाज-सुधञार आंदोलन को आर्य समञाज ने प्रदञान किए I कञािञांतर में डञा . आंबेडकर और उनके आंदोलन ने इन संज्ञाओं को सिीकञार कर इनहें और भी अधिक रूढ़ बनञायञा ।
ऋषि दयञाननद कञा वयषकतति मनसञा-िञाचञा- कर्मणञा एक जैसञा थञा । वह अपने वसद्धञानतों कञा केवल िञाणी और लेखनी द्वारञा ही प्रचञार नहीं करते थे , अपितु उनहें वह अपने वरियञातमक जीवन में सञाथ्यकतञा प्रदञान करते थे । खञान-पञान की दृष्ट से देखें तो ऋषि दयञाननद कञा प्रगतिशील वयषकतति दिखञाई देतञा है I 1867 में गढ़मुकते्िर में वह मञांझी की आधी रोटी खञाते हैं । 1868 में में फर्रुखञाबञाद में सुखिञासीिञाि सञाध द्वारञा िञाए कढ़ी-भञात कञा भोजन सिीकञार करते हैं । 1872 में अनूप शहर में उपषसथत जन समुदञाय के बीच नञाई समञाज के घर कञा भोजन ग्हण करते हैं । 1874 में अलीगढ़ जनपद के जञाट गुरुरञाम प्रसञाद के वेदभाष्यनुिञाद को संशोधित करने के लिए वह अपनञा अमूलय समय देने के लिए ततपर रहते हैं । 1874 में ही बिनञा जूते पहने कच्चञा भोजन िञाने िञािे भकत ठञाकुर प्रसञाद से वह यह सप्ट रूप में कहते हैं कि वह छुआछूत को नहीं मञानते , आप भी इस बखेड़े में मत पड़िए । गुजरञात के कञातञार गञांव में किसञानों द्वारञा आग में भूनकर दी गई ज्वार ( पोंक-हुडञा्य ) को वह सहर्ष ग्हण करते हैं । पुणे में सर्वश्री गोविंद मञांग , गोपञाि चमञार , रघु महञार आदि कञा लिखित प्रञाथ्यनञा पत् पञाकर शूद्रञावतशूद्रों के विद्यालय में 16 जुिञाई 1875 को वेदोपदेश देते हैं । 1878 में मुषसिम डञावकएद्वारञा एक असपृ्य ( कसञाई मजहबी सिख ) श्रोतञा को दुत्कारे जञाने पर भी उसे रुड़की में आतमीयतञा पूर्वक नियमित रूप से अपने वेद-प्रवचन में आने कञा निमंत्ण देते हैं । अपने ही नही सबके मोक् की चिंतञा करने िञािे मऋषि दयञाननद ने किसी जञावत-समप्रदञाय यञा वर्ग विशेष के लिए नहीं , अपितु सञारे संसञार के उपकञार के लिए आर्यसमञाज की स्थापनञा की थी ।
1876 में मुंबई में हरर्चंद्र चिंतञामणि के
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