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दलितोद्ार के लिए हमेशा सकरिय रहे स्वामी दयानन् सरस्वती

मनमोहन कुमार आर्य

इतिहञास में महर्षि दयञाननद पहले महञापुरुष हुए हैं , जिनहोंने उन्नीसवीं शतञाबदी के उत्रञाध्य में जनमनञा वर्ण-जञावत वयिस्था से ग्सत भञारतीयों को वैदिक वर्णवयिस्था के यथञाथ्य सिरुप , जो गुण , कर्म व सिभञाि पर आधञारित थञा एवं होतञा है , से परिचित करञायञा । महर्षि दयञाननद के विचञारों को ‘‘ सत्यार्थप्रकञाश ” ग्नथ के चौथे समुल्लास को पढ़कर जञानञा जञा सकतञा है । ऋषि दयञाननद द्वारञा वेदों की मञानयतञाओं एवं शिक्षाओं के अनुसञार गुण-कर्म-सिभञाि पर आधञारित वर्णवयिस्था कञा यथञाथ्य सिरुप विदित हो जञाने पर समसत देशिञासी हिनदुओं को उसे सिीकञार कर लेनञा चञावहए थञा I परनतु देश एवं समञाज के हितकञारी उनके विचञारों पर ध्यान नहीं दियञा गयञा और मधयकञाि एवं उसके कुछ समय बञाद आरमभ छुआछूत एवं ऊंच-नीच जैसी अनुचित मञानयतञाओं पर आधञारित जनमनञा जञावत वयिस्था को ही वयिहञार में िञायञा गयञा I देश व समञाज को जनमनञा जञावत वयिस्था के अभिशञाप से मुकत करञाने विषयक ऋषि दयञाननद के दलितोद्धञार के प्रेरक कार्यों एवं उदञाहरणों को कीर्तिशेष प्रवर शोध आर्य विद्वान प्रञा . कुशलदेव शास्त्ी ने व्यापक अधययन कियञा है I उनहोंने वर्णवयिस्था कञा उलिेख करते हुए अपनी शोध रचनञा में लिखञा है कि भिन्न-भिन्न क्मतञाओं िञािे वयषकतयों को प्रञाचीन कञाि में ही ब्राह्मण , क्वत्य , वै्य , शूद्र इन चञार संज्ञाओं से संबोधित कियञा गयञा थञा । ब्राह्मण वर्ग से बौद्धिक नेतृति की अपेक्षा की गई थी । क्वत्यों से सुरक्षा की

कञामनञा की गई तो वै्यों से व्यापञार के मञाधयम से समृद्धि की आशञा की गई थी तथञा शूद्रों से शञारीरिक श्रम द्वारञा सेिञा की अपेक्षा की गई थी । इसी कञा नञाम वर्ण वयिस्था थञा ।
दलितोद्धञार यञा जञावतवनमू्यिन के प्रसंग में प्रञायः यह प्रश्न उपषसथत होतञा रहञा है कि वर्णवयिस्था जनमनञा है यञा कर्मणञा । यदि उसे जनमनञा मञानञा जञाए तो वह जञावतगत भेदभञाि को वनमञा्यण करने कञा एक महत्िपूर्ण कञारण सिद्ध होती है । ऋषि दयञाननद कर्मणञा वर्णवयिस्था के पक्धर हैं । उनकी यह धञारणञा थी कि जनमनञा वर्णवयिस्था तो पञांच-सञात पीढ़ियों से शुरु हुई है I अतः उसे पुरञातन यञा सनञातन नहीं कहञा जञा सकतञा । अपने तञावक्कक प्रमञाणों द्वारञा उनहोंने जनमनञा वर्णवयिस्था कञा सशकत खंड़न कियञा । उनकी दृष्ट में जनम से सब मनु्य समञान हैं , जो जैसे कर्तवय-कर्म करतञा है , वह वैसे वर्ण कञा अधिकञारी होतञा है । कञारण चञाहे कुछ भी हो यञा न हो , लेकिन जनमनञा वर्णवयिस्था मञानने िञािे ऋषि दयञाननद के मत से असहमत हैं ।
असपृ्य अछूत-दलित शबद कञा विवेचन प्रसतुत करते हुए डञा . कुशलदेव शास्त्ी ने लिखञा है कि दलितोद्धञार से पूर्व दलितों के लिए सञाि्यजनकि सञामञावजक क्ेत् में असपृ्य और अछूत शबद प्रचलित थे , लेकिन जब समञाज- सुधञार के बञाद समञाज में यह धञारणञा बनने लगी कि कोई भी असपृ्य और अछूत नहीं है , तो धीरे-धीरे असपृ्य के स्थान पर दलित शबद रुढ़ हो गयञा । स्वाभञाविक रूप से असपृ्योद्धञार यञा अछूतोद्धञार कञा स्थान भी दलितोद्धञार ने ले लियञा ।
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