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सुपुत् कञा उपनयन संस्कार करिञाने िञािे और इससे पूर्व कण्यिञास में हंसञादेवी ठञाकुर को गञायत्ी मंत् कञा उपदेश देनेिञािे ऋषि दयञाननद 1880 में मुंशी मुख्तावर सिंह , मुंशी समर्थदञान तथञा िञािञा शञादीरञाम कञा भी उपनयन संस्कार करञायञा I समरण रहे ऋषि दयञाननद से पूर्व और विशेष रूप से मधयकञाि से ब्राह्मणों के अतिरिकत सभी वर्णसथ वयषकतयों को शूद्र समझञा गयञा थञा I अतः रिमशः मुगल और आंगि कञाि में महञाराष्ट्र केसरी छत्पति वशिञाजी महञारञाज , बड़ौदञा नरेश सयञाजीरञाि गञायकिञाड और कोल्हापुर नरेश रञाजर्षि शञाहू महञारञाज को उपनयन आदि वेदोकत संस्कार करञाने हेतु आनञाकञानी करनेिञािे ब्राह्मणों के कञारण मञानसिक यञातनञाओं के बीहड़ जंगल से गुजरनञा पड़ञा थञा । 1880 में दञानञापुर में अर्धरात्रि में टहलते हुए ऋ़षि दयञाननद के पैरों की आहट पञाकर जब कर्मचञारी ने क्ट कञा कञारण पूछञा तो ऋ़षि दयञाननद ने प्रतयुत्र में कहञा थञा कि ‘ ईसञाई लोग दलितों को ईसञाई बनञाने कञा भरसक प्रयत् कर रहे हैं और अपनञा रुपयञा पञानी की तरह बहञा रहे हैं और इधर हमञारे नेतञा कुंभकर्ण की नींद सो रहे हैं । यही चिंतञा मुझे विकल कर रही है ।’
1867 में हरिद्वार में ऋषि दयञाननद ने ‘‘ पञाखंड खंडिनी पतञाकञा ” गञाड़कर जब सञाि्यजनिक जीवन में अंगद की तरह दृढ़तञापूर्वक कदम रखञा थञा , तभी से वह जनमनञा वर्ण वयिस्था के विरोधी थे । कञाशी के प्रसिद्ध पं . विशुद्धञानद सरसिती भी इस कुंभ मेले में उपषसथत थे । जब उनहोंने ‘ ब्राह्मण परमे्िर के मुख से उतपन्न हुए , क्वत्य भुजञा से , वै्य जञांघ से और शूद्र पैरों से उतपन्न हुए ’ तब ऋषि ने इसकञा खंडन करते हुए कहञा थञा कि ‘ यदि इसकञा यही अर्थ है तो मुख से खखञार भी उतपन्न होतञा है । मंत् कञा सही अर्थ ब्राह्मण मुख से उतपन्न हुए नहीं , अपितु मुख के समञान है । इससे सप्ट है कि ऋषि दयञाननद अपने सञाि्यजनिक जीवन के प्रञारंभ में भी वर्ण वयिस्था जनमगत नहीं , अपितु गुण कमञा्यनुसञार ही मञानते थे । 1882 में उदयपुर में , एक प्रकञार से ऋषि दयञाननद के जीवन की संध्याकञाि में , दो सञाधु उनसे मिले और निवेदन कियञा कि आप अधिकञारी लोगों को ही उपदेश
दियञा करें । प्रतयुत्र में ऋषि ने कहञा कि धर्म के विषय में अधिकञार-अनञावधकञार कञा प्रश्न उठञानञा सर्वथञा वयथ्य है , धमगोपदेश सुनने कञा मनु्य मात्र को अधिकञार है । आपकी जञावत और धर्म के सैकड़ों मनु्य विधमटी हो रहे हैं और आप अधिकञार और अनञावधकञार कञा पचड़ञा लिए बैठे हैं । पहले उनहें तो बचञाइए ।
महर्षि दयञाननद के अनतःकरण में दलित , शोषित , निर्धनों के प्रति अतयंत ही करुणञा थी । ‘ संस्कार विधि ’ में धनसंपन्न वयषकत यञा संगठन कञा कर्तवय उनहोंने लिखञा है कि अंतयेष्ट संस्कार हेतु महञादरिद्र भिक्ुक को आधे मन से कम घृत न देवें । ऋषि दयञाननद रञाजस्थान के एक नरेश को अपने पत् में लिखते हैं कि शञासक यदि भोजन पर बैठञा हो और उस समय यदि उसे कहीं से नञारी कञा करुण रुदन सुनञाई दे तो उसकञा कर्तवय है कि वह थञािी से उठकर पहले उसके आंसू पोंछे । अपने निष्प्राण शिशु कञा तन ढकने के लिए कफन िञावपस ले आनेिञािी मञां की विवशतञा को देख ऋषि दयञाननद कञा करुणञािञान् हृदय अतिशय विह्ि हो उठञा थञा । महर्षि दयञाननद ने जहञां दलितों कञा उद्धञार कियञा वहञां दलितों से भी अतयवधक दलित-प्रपीड़ित सत्ी जञावत की भी आंतरिक वयथञा को दूर करने कञा प्रयञास कियञा । मौत के जबड़े में जञा रही आर्य जञावत की अवनति
ऋषि दयानन् का दलितोद्ार की दृष्ष्ट से भरी सब से महान् कार्य यह था कि उन्ोंने सबके साथ दलितों के लिए भरी वेद-विद्ा के दरवाजे खोल दिए । मध्यकाल मे स्तरी-शूद्ों के वेदाध्ययन पर जो प्रतिबंध लगाये गए थे , आर्य समाज के संस्ापक महर्षि दयानन् ने अपने मेधावरी क्रांतिकारी चिषितन और व्यनतित्व से उन सब प्रतिबंधों को अवैदिक धसद् कर दिया ।
से ऋषि दयञाननद बेहद चिंतित थे , इसीलिए उनहोंने एक बञार मोहनिञाि पंडयञा से कहञा थञा कि धमञा्यचार्यों के प्रमञाद के कञारण लोग विधमटी हो रहे हैं I अतः बढ़ती हुई कुरीतियों और कुनीतयों को न्ट करने के लिए उपदेशों के कोड़ों से इन सबको जगञानञा बहुत जरुरी है ।
ऋषि दयञाननद कञा दलितोद्धञार की दृष्ट से भी सब से महञान् कञाय्य यह थञा कि उनहोंने सबके सञाथ दलितों के लिए भी वेद-विद्या के दरिञाजे खोल दिए । मधयकञाि मे सत्ी-शूद्रों के वेदञाधययन पर जो प्रतिबंध लगञाये गए थे , आर्य समञाज के संस्थापक महर्षि दयञाननद ने अपने मेधञािी क्रांतिकञारी चिंतन और वयषकतति से उन सब प्रतिबंधों को अवैदिक सिद्ध कर दियञा । ऋषि दयञाननद के दलितोद्धञार के इस प्रधञान सञाधन और उपञाय में ही उनके द्वारञा अपनञाये गए अनय सभी उपञायों कञा समञािेश हो जञातञा है , जैसे-दलित सत्ी-शूद्रों को गञायत्ी मंत् कञा उपदेश देनञा , उनकञा उपनयन संस्कार करनञा , उनहें होम-हवन करने कञा अधिकञार प्रदञान करनञा , उनके सञाथ सहभोज करनञा , शैवक्क संस्थाओं में शिक्षा , िसत् और खञान पञान हेतु उनहें समञान अधिकञार प्रदञान करनञा , गृहसथ जीवन में पदञाप्यण हेतु युवक-युवतियों के अनुसञार ( अंतरजञातीय ) वििञाह करने की प्रेरणञा देनञा आदि ।
बञाबञा सञाहब डञा . भीमरञाि आंबेडकर ने भी सिीकञार कियञा है कि स्वामी दयञाननद द्वारञा प्रतिपञावदत वर्णवयिस्था बुद्धि गमय और निरूपद्रवी है । महर्षि दयञाननद की दृष्ट में कोई अछूत न थञा । देश में मवहिञाओं , पतितों तथञा जञावत-पञांति के भेदभञाि को मिटञाने के लिए महर्षि दयञाननद तथञा आर्यससमञाज से बढ़कर इस नवीन विचञारों के युग में किसी भी समञाज ने कञाय्य नहीं कियञा । सैकड़ों िषषों से हिंदुति के दुर्बल होने के कञारण भञारत बञारंबञार परञाधीन हुआ । इसकञा प्रतयक् अनुभव महर्षि स्वामी दयञाननद ने कियञा । इसलिए उनहोंने जनमनञा जञावतभेद और मूर्तिपूजञा जैसी हञावनकञारक रुढ़ियों कञा निर्मूलन करने िञािे वि्िव्यापी महत्वाकञांक्षा युकत आर्यधर्म कञा उपदेश कियञा ।
( साभार )
50 iQjojh 2024