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है । वरा्तश्म वयि्था पूर्ण रूप से वैदिक है एवं इसका मुखय प्रयोजन समाज में मनुषय को पर्पर सहयोगी बनाकर तभन् तभन् कामों को पर्पर बाँटना , किसी भी कार्य को उसके अनुरूप दक्ष वयसकर से करवाना , सभी मनुषयों को उनकी योगयरा अनुरूप काम पर लगाना एवं उनकी आजीविका का प्रबंध करना है । आरमभ में सकल मनुषय मात्र का एक ही वर्ण था । ( प्रमाण- बृहदारणयक उपनिषद् प्रथम अधयाय चतुर्थ ब्ाह्मण 11,12,13 कसणडका , महाभारत शांति पर्व मोक्ष धर्म अधयाय 42 शलोक10 , भागवत ्कंि 9 अधयाय 14 शलोक 4 , भविषय पुराण ब्ह्मपर्व अधयाय 40 )
लौकिक वयिहारों कि सिद्धि के लिए कामों को पर्पर बांट लिया । यह विभाग करने कि प्रतक्या पूर्ण रूप से योगयरा पर आधारित थी । कालांतर में वर्ण के ्थान पर जाति शबद रूढ़ हो गया । मनुषयों ने अपने वर्ण अर्थात योगयरा के ्थान पर अपनी अपनी तभन् तभन् जातियाँ निर्धारित कर ली । गुण , कर्म और ्िभाव के ्थान पर जनम के आधार पर अलग अलग जातियों में मनुषय न केवल विभाजित हो गया अपितु एक दूसरे से भेदभाव भी करने लगा । वैदिक वरा्तश्म वयि्था के ्थान छद्म एवं मिथक जातिवाद ने लिया ।
शंका 2- मनुषय को ब्ाह्मण , क्षलरिय ,
वैशय एवं शुद्र में विभाजित करने से कया प्योजन सिद्ध हुआ ?
समाधान- प्रतयेक मनुषय दूसरों पर जीवन निर्वाह के लिए निर्भर है । कोई भी वयसकर पर्पर सहयोग एवं सहायता के बिना न मनुषयोतचर जीवन वयरीत कर सकता है और न ही जीवन में उन्ति कर सकता है । अत : इसके लिए आवशयक था कि वयसकर जीवन यापन के लिए महतिपूर्ण सभी कमषों का विभाजन कर ले एवं उस कार्य को करने हेतु जो जो शिक्षा अनिवार्य है , उस उस शिक्षा को ग्हण करे । सभी जानते है कि अशिक्षित एवं अप्रशिक्षित वयसकर से हर प्रकार से शिक्षित एवं प्रक्षिशित वयसकर उस कार्य को भली प्रकार से कर सकते है । समाज निर्माण का यह भी मूल सिद्धांत है कि समाज में कोई भी वयसकर बेकार न रहे एवं हर वयसकर को आजीविका का साधन मिले । विद्ान लोग भली प्रकार से जानते है कि जिस प्रकार से शरीर का कोई एक अंग प्रयोग में न लाने से बाकि अंगों को भली प्रकार से कार्य करने में वयििान डालता हैं उसी प्रकार से समाज का कोई भी वयसकर बेकार होने से समपूर्ण समाज को दुःखी करता है । सब भली प्रकार से जानते हैं कि भिखारी , चोर , डाकू , लूटमार आदि करने वाले समाज पर किस प्रकार से बोझ है ।
इसलिए वेदों में समाज को विभाजित करने
का आदेश दिया गया है कि ज्ान के प्रचार प्रसार के लिए ब्ाह्मण , राजय कि रक्षा के लिए क्षत्रिय , वयापार आदि कि सिद्धि के लिए वैशय एवं सेवा कार्य के लिए शुरि कि उतपतत् होनी चाहिए ( यजुिदेद-30 / 5 )। इससे यही सिद्ध होता है कि वर्ण वयि्था का मूल उद्ेशय समाज में गुण , कर्म और ्िाभाव के अनुसार विभाजन है ।
शंका 3 - आर्य और दास / दसयु में कया भेद है ?
समाधान - वेदों में आचार भेद के आधार पर दो विभाग किये गये हैं-आर्य एवं द्यु । ब्ाह्मण आदि वर्ण कर्म भेद के आधार पर निर्धारित है । ्िामी दयानंद के अनुसार ब्ाह्मण से लेकर शुरि तक चार वर्ण है और चारों आर्य है ( सतयाथ्त प्रकाश 8 वां समुललास )। मनु ्मृति के अनुसार चारों िरषों का धर्म एक ही हैं वह है हिंसा न करना , सतय बोलना , चोरी न करना , पवित्र रहना एवं इसनरिय तनग्ह करना ( मनु ्मृति-10 / 63 )।
आर्य शबद कोई जातिवाचक शबद नहीं है , अपितु गुणवाचक शबद है । आर्य शबद का अर्थ होता है “ श्ेषठ ” अथवा बलवान , ईशिर का पुत्र , ईशिर के ऐशिय्त का ्िामी , उत्म गुण युकर , सदगुर परिपूर्ण आदि । आर्य शबद का प्रयोग वेदों में निम्नलिखित विशेषणों के लिए हुआ है । श्ेषठ वयसकर के लिए ( ऋगिेद 1 / 103 / 3 , ऋगिेद
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