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मुखय कारण इस अहसास का न होना है कि हिनदुओं और मुसलमानों के बीच जो तभन्राएं हैं , वे मात्र तभन्राएं ही नहीं हैं , और उनके बीच मनमुटाव की भावना सिर्फ भौतिक कारणों से ही नहीं हैं । इस वितभन्रा का स्ोर ऐतिहासिक , धार्मिक , सांस्कृतिक एवं सामाजिक दुर्भावना है और राजनीतिक दुर्भावना तो मात्र प्रतिबिंब है । ये सारी बातें असंतोष का दरिया बना लेती हैं जिसका पोषण उन तमाम बातों से होता है जो बढ़ते-बढ़ते सामानय धाराओं को आपलातित करता चला जाता हैं । दूसरे स्ोर से पानी की कोई भी धारा , चाहे वह कितनी भी पवित्र कयों न हो , जब ्ियं उसमें आ मिलती है तो उसका रंग बदलने के बजाय वह ्ियं उस जैसी हो जाती हैं । दुर्भावना का यह अवसाद , जो धारा में जमा हो गया हैं , अब बहुत पकका और गहरा बन गया है । जब तक ये दुर्भावनाएं विद्यमान रहती हैं , तब तक हिनदू और मुसलमानों के बीच एकता की अपेक्षा करना अ्िाभाविक है । ( पृ . 336 )
हिन्दू-मुस्लिम एकता असम्भव कार्य-
हिनदू-मुस्लम एकता की निरर्थकता को प्रगट करने के लिए मैं इन शबदों से और कोई शबदािली नहीं रख सकता । अब तक हिनदू- मुस्लम एकता कम-से-कम दिखती तो थी , भले ही वह मृग मरीचिका ही कयों न हो । आज तो न वह दिखती हे , और न ही मन में है । यहां तक कि अब तो गांधी ने भी इसकी आशा छोड़ दी है और शायद अब वह समझने लगे हैं कि यह एक असमभि कार्य है । ( पृ . 178 )
साम्प्रदायिक शान्न्त के लिए अल्पसंख्यकों की अदला-बदली
ही एक मात्र हल- यह बात तनसशचर है कि सामप्रदायिक शांति
्थातपर करने का टिकाऊ तरीका अलपसंखयकों की अदला-बदली ही हैं । यदि यही बात है तो फिर वह वयथ्त होगा कि हिनदू और मुसलमान संरक्षण के ऐसे उपाय खोजने में लगे रहें जो इतने असुरक्षित पाए गए हैं । यदि यूनान , तुकनी और बुलगारिया जैसे सीमित साधनों वाले छोटे- छोटे देश भी यह काम पूरा कर सके तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि हिनदु्रानी ऐसा नहीं कर सकते । फिर यहां तो बहुत कम जनता को अदला-बदली करने की आवशयकता पड़ेगी ओर चूंकि कुछ ही बाधाओं को दूर करना है । इसलिए सामप्रदायिक शांति ्थातपर करने के लिए एक तनसशचर उपाय को न अपनाना अतयनर उपहासा्पद होगा । ( पृ . 101 )
16 . विभाजन के बाद भी अलपसंखयक- बहुसंखयक की सम्या बनी ही रहेगी-
यह बात ्िीकार कर लेनी चाहिए कि पातक्रान बनने से हिनदु्रान सामप्रदायिक सम्या से मुकर नहीं हो जाएगा । सीमाओं का पुनर्निर्धारण करके पातक्रान को तो एक सजातीय देश बनाया जा सकता है , परनरु हिनदु्रान तो एक तमतश्र देश बना ही रहेगा । मुसलमान समूचे हिनदु्रान में छितरे हुए हैं । यद्यपि वे शहरों और क्बों में केंतरित हैं । चाहे
किसी भी ढंग से सीमांकन की कोशिश की जाए , उसे सजातीय देश नहीं बनाया जा सकता । हिनदु्रान को सजातीय देश बनाने का एकमात्र तरीका है , जनसंखया की अदला-बदली की वयि्था करना । यह अवशय विचार कर लेना चाहिए कि जब तक ऐसा नहीं किया जाएगा , हिनदु्रान में बहुसंखयक बनाम अलपसंखयक की सम्या और हिनदु्रान की राजनीति में असंगति पहले की तरह बनी ही रहेगी । ( पृ . 103 )
अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए संवैधानिक उपाय-
अब मैं अलपसंखयकोंकी उस सम्या की ओर आपका धयान दिलाना चाहता हूँ जो सीमाओं के पुनः निर्धारण के उपरानर भी पातक्रान में बनी रहेंगी । उनके हितों की रक्षा करने के दो तरीके हैं । सबसे पहले , अलपसंखयकों के राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान में सुरक्षा उपाय प्रदान करने हैं । भारतीय के लिए यह एक सुपरिचित मामला है और इस बात पर वि्रार से विचार करना आवशयक है । ( पृ . 385 )
18 . अलपसंखयकों की अदला-बदली-एक संभावित हल-
दूसरा तरीका है पातक्रान से हिनदु्रान में उनका ्थानानररण करने की स्थति पैदा करना । अधिकांश जनता इस समाधान को अधिक पसंद करती हे और वह पातक्रान की ्िीककृति के लिए तैयार और इचछुक हो जाएगी , यदि यह प्रदर्शित किया जा से कि जनसंखया का आदान- प्रदान समभि है । परनरु इसे वे होश उड़ा देने वालीऔर दुरूह सम्या समझते हैं । तन्संदेह यह एक आतंकित दिमाग की निशानी है । यदि मामले पर ठंडे और शांतिपूर्ण ढंग से विचार किया जाए तो पता लग जाएगा कि यह सम्या न तो होश उड़ाने वाली है , और न दुरूह । ( पृ . 385 )
( सभी उद्धरण बाबा साहब डॉ . आंबेडकर समपूर्ण वाड्‌मय , खंड-15- ‘ पातक्रान और भारत के विभाजन , 2000से लिए गए हैं )
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