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मिथिलांचल की लोक — कलाओ ंका कर्णधार दलित समाज
उपेषिा से त्स् होकर अस्तित्व कती लड़ाई लड़ रहे लोक — कलाकार लोक — कलाकारों को ना नाम मिल रहा ना दाम , ऐसे कब तक चलेगा काम ?
डॉ . सुरेन्द्र झा
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लातमकता के मामलों में एक विशेष वर्ग का हमेशा ही बहुत बड़ा योगदान रहा है जिसे हम दलित कहते है । कलाकार कौन होता है ? वही जो पारखी होगा , कला की बारीकियों की समझ रखता होगा । किसी ने कहा है कि कलाकार ही महान होते हैं और अमर होते हैं क्ोंकि जब भी कहीं कोई उद्धरण देना होता है तो हम कहते है कि सवामी विवेकानयंद ने कहा था , गायंधीजी ने कहा था , डॉ . आयंबेडकर ने कहा था । इसी तर्ज पर जब कलाओं के सयंदर्भ में बात होती है तो यह उदाहरण दिया जाता है कि लबषसमलिाह खान ने बजाया है , मुहममद रफ़ी ने गाया है । अपनी कला के कारण वे आज भी अमर हैं । तभी तो कहा जाता है कि कलाकार अमर होते हैं ।
कलाकारों की गुम हो रही पहचान
इसी सयंदर्भ में यह आव््क भी है और अपेलषित भी कि एक खास अयंचल के दलित कलाकारों की भूमिका के बारे में चर्चा की जाए । यह अयंचल है मिथिलायंचल , जो बिहार प्रायंत के उत्तरी भाग में अवषसथत है और जो नेपाल की तराई षिेरि से लेकर गयंगा के उत्तरी भाग तक फैला हुआ है । यह कहना गलत नहीं होगा कि आज की तारीख में मिथिलायंचल की कला सयंसकृलत को जीवयंत रखने वाले केवल दलित समाज के लोग ही हैं । इस तथ्य और जमीनी हकीकत की पुष्ट के लिए कई उदाहरण दिये जा सकते हैं । लेकिन दुखद बात यह है कि मिथिलायंचल में एक से एक विद्ान एवयं कला पारखी हुए हैं जिनका गर्व और आदर से नाम लिया जाता है , परयंतु तमाम प्रतिकूल पररषसथलत्ों और हर सतर पर हो रही तमाम उपेषिाओं और अवहेलनाओं के बावजूद मिथिला की महान कला सयंसकृलत को जीवित व सयंरलषित रखनेवाले उन दलित कलाकारों का नाम लेने वाला भी कोई नहीं है जो आज भी मिथिला की पारयंपरिक कलाओं को अपने दम पर जीवित रखे हुए हैं ।
परंपरागत लोक — कलाओ ं को नहीं मिल रहा सम््ि
आप बायंस से बने समान जैसे सूप , डगरा , आयंचलिक भाषा में कहें तो पथिया , मौनी , चयंगेरा आदि वसतुओं का प्रयोग यूयं तो समाज के वर्ग करते हैं लेकिन कथित उच् वर्ग के सयंभ्ायंत कहे जानेवाले समुदाय के लोग पूजा — पाठ व व्रत — त्ोहार में अधिक प्रयोग करते हैं तथा अब इसकी कलातमकता एवयं सु यंदरता के कारण देश विदेश में इसे बिहार की कला के रूप में मान्ता मिल रही है । ऐसी दर्जनों वसतुएयं है जिनके बनाने वाले मारि दलित समाज के कलाकार ही हैं । लेकिन विडंबना है कि समाज के कथित उच् वर्ग के लोगों को दलित समाज द्ारा जीवित रखी गई कलाओं का सममान करना नहीं भाता रहा है । जहायं समाज में खुद को ऊपर के पायदान पर खड़ा समझने वाले वर्ग को निचले पायदान पर खड़़े समाज के उतथान में सहायक होना चाहिए वहायं इस मामले में इनकी उदासीनता दुखद भी है और अफसोसनाक भी ।
48 दलित आं दोलन पत्रिका flracj 2021