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“ 200 : हल्ा हो ” में सत्य घटना का वास्तविक फिलांकन
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ह घटना साल 2004 में नागपुर में घटी थी । उस वकत अककू यादव नामक एक लोकल गुयंि़े , रेपिसट , गैंगसटर और खूनी को खुली अदालत में 200 दलित महिलाओं ने सरेआम मार डाला था । इन महिलाओं ने अककू यादव की हैवानियत को 10 साल तक झेला , लेकिन शिकायत करने के बाद भी पुलिस-प्रशासन की मदद नहीं मिली थी । लेकिन उनके ही समाज की ही एक पढ़ी- लिखी लड़की ने अपराध का विरोध किया , महिलाओं को जागृत करके एकजुट किया और अककु यादव जैसे आदतन गुयंि़े के जुलमों से समाज को आजादी दिलाई ।
फिलम की कहानी चूयंलक सच्ी घटना पर आधारित है , इसलिए फिलमकार ने उससे छ़ेड़छाड़ नहीं की है । शुरूआत कोर्ट से होती है , जहायं 200 महिलाओं का एक झुयंि हाथ में हथियार लिए कोर्ट रूम में घुस जाता है । जज और पुलिस की मौजूदगी में लोकल गुयंि़े बलिी चौधरी ( साहिल खट्र ) को चाकू , कैंची और सकू ड्ाइवर से छलनी कर दिया जाता है । यहायं तक कि उसका प्राइवेट पार्ट भी काट दिया जाता है । इसके बाद सभी महिलाएयं वहायं से गायब हो जाती हैं । पुलिस किसी का चेहरा तक नहीं देख पाती । चुनाव नजदीक होने की वजह से इस हाईप्रोफाइल केस को नेताओं के इशारे पर पुलिस सुलटाने में लग जाती है । पुलिस की एक टीम नागपुर के राही नगर की पायंच महिलाओं को गिर्तार कर लेती है । उनको थाने लाकर थर्ड डिग्री देकर सच कबूल करने के लिए कहा जाता है , उनके साथ पुलिस बहुत सखती करती है । लेकिन कोई भी महिला अपना मुयंह नहीं खोलती ।
इधर महिलाओं को रिहा कराने के लिए एक दलित युवती आशा सुवदे ( ररयंकू राजगुरु ) आयंदोलन करती है । महिलाओं की गिर्तारी का
महिलाओंने अक्कू यादव कती हैवानियत को 10 साल तक झेला , लेकिन शिकायत करने के बाद भी पुलिस-प्रशासन कती मदद नहीं मिली थी । लेकिन उनके ही समाज कती ही एक पढ़ी-लिखी लड़कती ने अपराध का विरोध किया , महिलाओंको जागृत करके एकजुट किया और अक्कु यादव जैसे आदतन गुंडे के जुल्ों से समाज को आजादी दिलाई ।
मुद्ा बड़ा बनता देख राजनीतिक दबाव में आकर महिला आयोग एक जायंच कमेटी बना देती है । रिटायर्ड जज विट्ठल डायंगले ( अमोल पालेकर ) को इस कमेटी का अध्षि बना दिया जाता है , जो एक वकील , प्रोफेसर और परिकार के साथ मामले की जायंच शुरू करते हैं । विट्ठल डायंगले की जायंच में परत-दर-परत जब मामले का खुलासा होता है , तब जाकर पता चलता है कि बलिी चौधरी जैसे गुयंि़े कैसे सामाजिक ताने-बाने और राजनीतिक रसूख का फायदा उठाकर समाज का शोषण करते हैं । पुलिस भी उनका साथ देती है । ऐसे में विवश जनता मजबूर होकर अपनी नरक भरी लजयंदगी को सच मान लेती है । लेकिन जब आशा सुवदे के रूप में आशा की किरण दिखाई देती है , तो इनहीं लोगों में हिममत और साहस का सयंचार हो जाता है ।
फिलम में दलित विमर्श के पन्ने धीरे-धीरे खुलते चले जाते हैं । रिटायर्ड जज विट्ठल डायंगले खुद दलित हैं , लेकिन उनहोंने अपनी सामाजिक हैसियत उठने के बाद मुड़कर नहीं देखा । वह दोषी करार दी गई महिलाओं के लिए लड़ने वाली दलित युवती आशा सुवदे ( ररयंकू राजगुरु ) की बातों से शुरुआत में सहमत नहीं होते मगर धीरे-धीरे षसथलत्ायं बदलती हैं । उनहें लगने लगता है कि कानून की आयंखों पर बयंधी पट्ी को अब
खोल देना चाहिए क्ोंकि आज बयंद आयंखों से नहीं बषलक निगाहें चौकन्नी रख कर न्ा् करना जरूरी हो गया है । इधर सरकार महिलाओं को सजा मिल जाने के बाद जायंच कमेटी भयंग कर देती है । लेकिन विट्ठल डायंगले और आशा सुवदे की वजह से केस रिओपेन होता है । इस तरह एक घटना के जरिए फिलम में दलितों , महिलाओं , अपराधियों और राजनेताओं के गठजोड़ को बखूबी दिखाया गया है ।
लनददेशक सार्थक दासगुपता ने इस फिलम के जरिए उन दलित महिलाओं के बारे में बताया है , जिनहें सामाजिक रूप से हाशिए पर रहने , छ़ेड़छाड़ , प्रताड़ित और अपमानित होने के बावजूद अपने जीवन को बर्बाद करने वाले ज़िममेदार व्षकत को दयंलित करने के लिए कानून अपने हाथ में लेना पड़ा । यह इस बहस को सयंबोधित करता है कि क्ा वे सही थे या गलत थे । यह फ़िलम उस सामाजिक बदलाव को आवाज़ देती है , जिसकी समाज में ज़रूरत से इनकार नहीं किया जा सकता है । बॉलीवुड की फिलमों में अकसर जाति के बारे में बात करने से बचा जाता है और महिलाओं को पीड़िता दिखाया जाता है , लेकिन ये फिलम दलितों और महिलाओं के ताकतवर होने की बात करती है । �
flracj 2021 दलित आं दोलन पत्रिका 47