eMag_Sept2021_DA | Page 40

laLd`fr

हिन्दू धर्म-संस्कृ ति के ध्वजवाहक संत रैदास

e

ध्काल में मुषसिम आकायंताओं ने अत्ाचार और दमन से जब हिनदू समाज अपने अषसततव की िड़ाई िड़ रहा था । षसथलत यह थी कि हिनदू समाज के सामने इसिाम का सवीकार करने अथवा मृत्ु को प्रापत करने के अलावा कोई अन् रासता नहीं था । ऐसे विपरीत समय में कई हिनदू धर्मरषिको का आविर्भाव हुआ । सयंत रैदास , जिनहें सयंत गुरु रविदास भी कहा जाता है , उनमें से एक थे । सयंत रविदास की वासतलवक जनमलतलथ की जानकारी अनतः-वाह्य साक््ों के आधार पर किया जाता है । जानकारी के अनुसार उनका जनम समवत 1433 वि . के माघ मास की पूर्णिमा के रविवार दिन हुआ था । रविवार का दिन सूर्य से सम्बंधित होने के कारन बड़़े महत्व का माना जाता है । सूर्य की अरुण शैशवावसथा जितनी भी प्रियकर होती है , उसकी प्रौढ़ावसथा उतनी ही प्रखर और असहाय होने लगती है । रविवार के दिन ऐसे महातमा का जनम लेना यह भी इयंलगत करता है कि वह अरुण सूर्य की तरह प्रिय थे और दृढ़व्रती सयंत के रूप में सूर्य की प्रखर ज्ोलत भी थे । कुछ लोग रविवार को जनम लेने के आधार पर उनको रविदास भी कहते है , लेकिन वसतुतः वह रय अथवा रै अर्थात ई्वर के दास थे ।
सयंत रैदास का जनम काशी अर्थात वाराणसी के मयंि़ेसर अथवा वर्तमान के मयंिुआडीह के भिटवा नामक एक हिनदू चर्मकार जाति की बसती में षसथत एक इमली के पेड़ के नीचे हुआ था और कालायंतर में उसी वृषि के नीचे बैठकर उनहोंने अपनी साधना की थी । वर्तमान में यह सथान वासतलवक रूप से काशी की पयंचकोशी पररकमा के अयंतर्गत है । गुरु रैदास का जीवन
आध्ाषतमक ऋषियों एवयं हिनदू सयंसकृलत के सयंवाहक सयंतों के जीवन में घटित उदहारण से सयं्ुकत मिलता है । उनके पितामह हरिनयंदन को धौलागढ़ जयंगल में सननदन ऋषि के आशीर्वाद
से पुरि रत्न की प्राषपत हुई थी , जिसका नाम रगघू रखा गया । जिस प्रकार राजा रघु के कुल में भगवान् श्ीराम का जनम हुआ था , उसी प्रकार रगघू के कुल में सयंत रैदास ने उनके बेट़े के रूप
40 दलित आं दोलन पत्रिका flracj 2021