eMag_Sept2021_DA | Page 39

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ध्ान देने की बात यह है कि नवोदय विद्ाि् में प्रति वर्ष प्रति छारि खर्च ( 1990 के मूल् पर आधारित ) 10,000 से ऊपर , सरकारी प्राथमिक विद्ाि्ों में 700 के आस-पास तथा अनौपचारिक केनद्रों में 100 के आस-पास है । यह सोचने वाली बात है कि लशषिा में लागत के सतर पर इतना बड़ा अयंतर भला किस तरह लशषिा की एकसमान गुणवत्ता बरक़रार रखेगा । प्रतिभाशाली छारिों के लिए नवोदय किसम के विद्ाि् की सथापना वसतुतः अपनी अवधारणा में ही यह मानकर चलती है कि कुछ बच्े
जनमजात ही प्रतिभाशाली होते हैं और बाकि के बच्े जनम से ही फिसड्ी । इनमें सामाजिक- सायंसकृलतक और आर्थिक कारकों का योगदान नहीं होता । साथ ही यह अचछी लशषिा का हक़ सिर्फ तथाकथित जनम से ही प्रतिभाशाली माने जाने वाले छारिों का ही है , बाकी का नहीं ।
पियरे बोर्दिऊ ने अपनी पुसतक ‘ सायंसकृलतक उतपादन ’ में इसी षसथलत को दर्शाया है , वे कहते हैं कि अभिजन वर्ग के बच्े अपने पूर्वजों की सायंसकृलतक पूयंजी की वजह से पहले ही मजबूत षसथलत में रहते हैं जिसमें उन बच्ों का अपना
कोई योगदान नहीं रहता । जबकि राममूर्ति समिति ( 1990 ) स्वयं ही यह मानती है कि इसमें समानता और सामाजिक न्ा् का प्रश्न जुड़ा है , क्ोंकि अधिकतर ग्रामीण बच्े गरीबी के कारण निम्न सतर के सकूिों में ही लशषिा पाते हैं जिससे उनकी प्रतिभा , रुझान और योग्ता का विकास सीमित हो जाता है । पाउलो फ्ेरे जैसे प्रतिष्ठत लशषिालवद ने अपने साषिातकार में कहा था कि- उनके परिवार के पास प्रायः खाने के लिए पर्यापत भोजन नहीं रहता था , इस वजह से वह सकूि में पिछड़ गए । इन लशषिालवदों की बातों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि राजनीतिक दलों का इससे कुछ लेना-देना नहीं है । यही वजह है कि सैद्धायंलतक तौर पर तो वे सामाजिक न्ा् की बात करते हैं परनतु इसे जमीनी रूप देने वाले का््णकमों में इसकी झलक नहीं मिल पाती ।
भारतीय जाति व्वसथा में व्ापत सयंकीर्णता और असमानता हमें एक दूसरे से व्ावहारिक और वैचारिक तौर पर अलग करते हैं । लेकिन अगर इस समाज में व्ापत कुरीतियों और बुराइयों को दूर करने की बात हो तो इसमें भी वैचारिक मतभेद हो सकता हैं | समस्ा तो यह है कि आज के लशलषितों में से कई लोगों को समाज और देश की समस्ाओं की समझ ही नहीं है । हम देखते हैं कि आज भी समाज के लशलषित वर्ग में समाज और देश की समस्ाओं को समझने की सकारातमक और वैज्ालनक दृष्टकोण का अभाव है । लशषिा के समान अवसर , आर्थिक सुरषिा , मूल् आधारित लशषिा , सामाजिक , सायंप्रदायिक और लियंग विभेद जैसी समस्ाओं से अवगत कराने वाली लशषिा-प्रणाली को लागू करने से देश में न केवल लशषिा के सतर में सुधार आएगा बषलक साषिरता का दर भी बढ़ेगा । जब पूरे देश में एकसमान ‘ कर ’ प्रणाली लागू की जा सकती है तो एक सामान लशषिा व्वसथा क्ों नहीं ? प्रयोग में सैद्धायंलतक व व्वहारिक सतर पर कार्य करना होगा , देश-काल , समय की आव््कता के अनुसार दोनों बातों पर एक साथ विचार करना ही समय और समाज की जरुरत है । �
flracj 2021 दलित आं दोलन पत्रिका 39