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है । लिहाजा चौकोने मुकाबले में अधिकतम कुल 30 — 35 फीसदी वोटों से ही जब बहुमत का आयंकड़ा हासिल होना है तो एक साथ 32 फीसदी वोटों के खजाने पर हाथ साफ करने के लिए किसी का भी किसी भी हद से गुजर जाने के लिए आगे आना सवाभाविक ही है । यही वजह है कि तकरीबन हर पाटटी दलित समाज को अपने पाले में लाने के लिए लालायित है ।
दलित समाज को राजनीतिक अधिकार की तलाश हालायंलक पयंजाब की राजनीति का एक तथ्य
व सत् यह भी है कि वहायं के दलित वर्ग ने अपने समाज के हितों को सववोपरि समझते हुए कभी एकजुट होकर मतदान नहीं किया । यही वजह रही कि जिस पयंजाब में देश की सबसे ज्ादा दलित आबादी हो , जहायं पैदा हुए कायंशीराम ने रा्ट्व्ापी दलित मूवमेंट खड़ा किया हो और उनके ज़रिए बनी बहुजन समाज पाटटी देश के सबसे बड़़े सूबे उत्तर प्रदेश में पायंच बार सरकार बनाने में कामयाब हुई , वही बहुजन समाज पाटटी पयंजाब में कभी बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं बन पाई । 21 प्रतिशत दलित आबादी वाले राज् यूपी में मायावती वहायं की चार बार मुख्मंत्री रहीं , लेकिन 32 प्रतिशत दलित आबादी वाले
राज् पयंजाब में आज तक किसी दलित के सीएम बनने की बात तो दूर की है , वह डिपटी सीएम भी नहीं बन पाया है ।
25 साल पुरानी सफलता दोहराने की चुनौती
लेकिन इस बार मौका भी है और समीकरण भी । लिहाजा पहली बार दलित समाज की इस बड़़े पैमाने पर जो पूछ हो रही है और तकरीबन सभी पार्टियायं चुनाव के बाद दलित वर्ग का उप — मुख्मंत्री बनाने का जो लव्वास दिला रही हैं उससे सप्ट है कि पयंजाब की राजनीति अब नई करवट ले सकती है । खास तौर से प्रदेश में वोटकटुआ के तौर पर दलित वोटों में सेंध लगाकर जीत — हार में पददे के पीछ़े से बड़ी भूमिका निभाती आ रही बसपा ने इस बार सामने आकर अकाली दल के साथ जो चुनावी गठजोड़ किया है उसने राजनीति की धारा को नई दशा और दिशा की ओर बढ़ा्ा है । बेशक बसपा अपने दम पर पयंजाब में कोई बड़ा कमाल करने में सषिम नहीं है , लेकिन वह किसी के साथ जुड़कर चुनावी गणित को बड़़े पैमाने पर प्रभावित करने में सषिम अव्् है । उसमें भी बात अगर दलित मतदाताओं में गहरी पैठ रखने का दावा करनेवाले अकाली दल के साथ बसपा के गठजोड़ की करें तो 25 साल पहले यह गठबयंधन
बड़ा कमाल कर चुका है । वर्ष 1996 के लोकसभा चुनाव में जब अकाली दल और बीएसपी का गठबयंधन हुआ था तो इनहोंने 13 लोकसभा सीटों में से 11 सीटें जीत लीं थी ।
भाजपा ने अकाली दल को दिलाई राष्टीय स्वीकार्यता
लेकिन 1997 के विधानसभा चुनाव के वकत बसपा से अलग होकर अकाली दल ने बीजेपी से गठबयंधन कर लिया और दो दशक तक साथ रहकर इनहोंने प्रदेश में 15 एनडीए की साल सरकार चलाई । लेकिन पिछले साल अकाली दल कृषि कानूनों के मुद्े पर भाजपा से अलग होने के बाद अब एक बार फिर बसपा के साथ चुनाव मैदान में उतरी है । 1996 के लोकसभा चुनाव के वकत बीएसपी के साथ अकाली दल को कामयाबी मिलने के बावजूद उसे बीजेपी के साथ गठबयंधन की ज़रूरत इसलिए पड़ी थी क्ोंकि वह ऐसा दौर था जब अकालियों को धार्मिक कट्रवादी पाटटी के रूप में देखा जा रहा था । इससे उनको रा्ट्ी् राजनीति में अपने विसतार का मौका नहीं मिल पा रहा था । उधर बीजेपी को पयंजाब में एयंट्ी की ज़रूरत थी , उसकी छवि रा्ट्वादी पाटटी की थी , ऐसे में उन लोगों को लगा कि बीजेपी के साथ जाने से उनकी छवि बदल सकती है । इसके मद्ेनज़र गठबयंधन हो गया था ।
flracj 2021 दलित आं दोलन पत्रिका 25