fjiksVZ
जहायं एक ओर प्रादेशिक परिप्रेक्् में दलित
समाज पयंजाब में सबसे अधिक मजबूत है वहीं दूसरी ओर रा्ट्ी् नजरिए से देखा जाए तो दलित जिनहें पहले अछूत कहा जाता था वह भारत की आबादी का 16.6 फीसदी हैं । इनहें सरकारी आयंकड़ों में अनुसूचित जातियों की सयंज्ा से नवाजा गया है । प्रशासनिक सुविधाओ के लिए अनुसूचित जाति कहा गया और आजादी के बाद भी इस औपनिवेशिक शबदावली की व्वसथा को ही लजयंदा रखा गया । इसके लिए सयंवैधानिक आदेश 1950 जारी किया गया जिसमे भारत के 29 राज्ों की 1108 जातियों के नाम शामिल किए गए । लेकिन इस जाति व्वसथा के भीतर जातियों उप — जातियों का चयन व बयंटवारा समय और राजनीतिक पररषसथलत्ों की मायंग व परिवर्तन के कारण बदलता रहा है ।
बेशक बीसवीं शताबदी की शुरुआत में ही नहीं बषलक देश की आजादी के कई दशकों बाद तक भी कुछ चुलनयंदा अपवादों को छोड़कर समूचे दलित समाज की हालत सामाजिक , शैलषिक और आर्थिक तौर पर लगभग एक जैसी थी । आजादी के बाद गिने चुने लोग ही थे जो विषम पररषसथलत्ों और प्रतिकूल हालातों से थोडा ऊपर उठ सके और नौकरियों में आरषिर व कानूनी सयंरषिर जैसी सुविधाओं को सकारातमकता रूप से लाभ ले सके । लेकिन अब इककीसवीं सदी में हालात काफी बदल चुके हैं । अब दलित समाज का काफी बड़ा तबका किसी भी मामले में किसी से कमतर नहीं है । खास तौर से मौजूदा नरेनद्र मोदी की सरकार के बीते सात सालों के कार्यकाल में दलित
लगातार मजबूत हो रही दलित समाज की बुनियाद
समाज के लोगों के हौसले और आतमलव्वास ने आसमान को छूना आरयंभ कर दिया है । यहायं तक कि दलित समाज के लोग कारोबार के षिेरि में भी नई ऊंचाईयों को छू रहे हैं । दलित चैंबर ऑफ़ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्ी इसका एक उदाहरण है । लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अपने जीवन सतर को ऊपर उठाने में कामयाब रहने वाले दलित समाज के लोगों की तादाद इनकी कुल आबादी के मुकाबले काफी कम बषलक नगण् ही है । लेकिन सुखद पहलू यह है कि अब दलित समाज का बहुत बड़ा तबका मुख्धारा से जुड़ चुका है और अपनी मेहनत के दम पर आगे बढ़ने के लिए प्रयासरत है ।
लेकिन परिवर्तन के दौर से गुजर रहे दलित समाज को अभी सरकारी व कानूनी सयंरषिर की सर्वाधिक आव््कता है । खास तौर से लशषिा व रोजगार के षिेरि में दलित समाज को
अधिकतम सयंरषिर दिये जाने की जरूरत है । लेकिन इस मामले में निजीकरण का बढ़ता दायरा दलित समाज के आगे बढ़ने की राह का रोड़ा बनता दिख रहा है । सरकारी सयंसथानों में तो आरषिर का लाभ इनहें मिल रहा है लेकिन निजी सयंसथानों में आरषिर की व्वसथा लागू करने की बाध्ता नहीं होना दलित समाज की तरककी की राह में रूकावट उतपन्न कर रहा है । इसी प्रकार राजनीति के षिेरि में भी आरषिर की अवधारणा को ईमानदारी से लागू करने की आव््कता है । बेशक चुनाव षिेरि के निर्धारण में दलित समाज को राजनीति में भागीदारी देने के लिए निश्चत अनुपात में उनके लिए आरलषित सीटों की व्वसथा है लेकिन आनुपातिक भागीदारी राजनीतिक दलों के सयंगठनों में भी मिलनी चाहिए ।
ऐसे और भी कई मामले हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए क्ोंकि इन मामलों में आज भी दलित समाज को अपने अधिकारों के लिए सयंघर्ष करना पड़ रहा है । लिहाजा जब राजनीतिक समीकरणों के लिहाज से दलित समाज के समर्थन का महतव बढ़ता दिख रहा है तो सिर्फ उनहें बरगलाने के लिए लुभावनी बातें करना उचित नहीं होगा । वैसे भी समय के साथ बदल रहा दलित समाज अब अपने अधिकारों को लेकर सजग भी है और चौकन्ना भी । लिहाजा उसे हवाई घोषणा या वायदे से अपने पाले में खींच पाना किसी के लिए भी सयंभव नहीं हो सकता है । ऐसे में आव््कता है कि दलित समाज से जुड़़े मुद्ों पर गयंभीरता से विचार किया जाए और ईमानदारी के साथ उनके हित में काम किया जाए ।
24 दलित आं दोलन पत्रिका flracj 2021