eMag_Sept2021_DA | Page 12

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‘ सोशल इयंजीनियररयंग ’ द्ारा समावेशी राजनीति की ओर कदम बढ़ाया और सभी वगगों के वोट से प्रदेश में सरकार बनाई । हालायंलक अपने प्रयोग को वह बहुत आगे नहीं ले जा सकीं और रा्ट्ी् राजनीति की राह में भटक गईं । वहीं पासवान स्वयं निर्वाचित होते रहे , पर बिहार में दलितों को लामबयंद नहीं कर सके और पासी-समाज तक ही सीमित होकर रह गए । ऐसे में यह प्रश्न उठना सवाभाविक है कि कोई दलित नेता रा्ट्ी् राजनीति तो दूर अपने प्रदेश में ही पूरी तरह सथालपत क्ों नहीं हो पाता ? इसके तीन कारण तो बिलकुि सप्ट हैं ।
दलित वर्ग की आं तरिक सामाजिक संरचना
पहला यही कि दलित समाज बेहद विभकत है । उसकी आयंतरिक सामाजिक सयंरचना में उतना ही भेदभाव है जितना बाह्य समाज में । जाटव और पासी , पासी और वालमीलक , वालमीलक और डोम और ऐसे ही अनेक दलित समुदाय एक मयंच पर नहीं आते । अधिकायंश विमर्श दलित बनाम गैर-दलित पर ही केंद्रित रहता है । लव्िेरक ‘ दलित राजनीति ’ की बात करते हैं , लेकिन उनके लव्िेरर गलत हो जाते हैं , क्ोंकि वे दलितों को समरूप समाज मानकर चलते हैं । कोई भी दलित या गैर-दलित नेता दलितों की आयंतरिक सामाजिक सयंरचना की पदसोपानीयता और विसयंगतियों को नहीं उठाता । जब तक ऐसा नहीं होगा , तब तक ‘ दलित राजनीति ’ केवल सहयोगी राजनीति के रुप में ही लक्ाशील हो पाएगी , ‘ सवा्त्त-राजनीति ’ के रूप में नहीं ।
दलित समाज लामबंद नहीं
दूसरा कारण यही है कि दलित समाज की आयंतरिकपदसोपानीयता उसे समरूप समाज के रूप में लामबयंद नहीं होने देती । यदि उप्र में जाटव केंद्रित दलित राजनीति है तो बिहार में पासी या मुसहर केंद्रित । पयंजाब में सर्वाधिक 32 फीसद दलित हैं , लेकिन कोई दलित राजनीति की बात नहीं करता ? कायंशीराम तो होशियारपुर ,
पयंजाब से थे । फिर भी वह वहायं दलितों में पैठ नहीं बना सके ? कारण सप्ट है कि वहायं दलित समाज वाषलमकी , रविदासी , कबीरपयंथी , मजहबी सिख आदि में बयंट़े हुए हैं , जिनमें रोटी-बेटी का सयंबयंध भी नहीं होता । क्ा ऐसे विभकत समाज में दलितों को लामबयंद कर ‘ अषसमता ’ आधारित राजनीति हो सकती है ? क्ा इसीलिए मायावती को पयंजाब में आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अकाली दल के साथ गठबयंधन करना पड़ा ? सयंभवत : इसी कारण भाजपा ने तुरुप का पत्ता चला है । भाजपा ने राज् में दलित मुख्मंत्री बनाने की घोषणा की है । यदि दलितों की राजनीतिक लामबयंदी और सशकतीकरण से उनके आयंतरिक सामाजिक भेदभाव को खतम किया जा सके तो यह घाट़े का सौदा नहीं होगा ।
अस्मिता को तरजीह देने का स्वभाव
तीसरा पहलू यही है कि दलित राजनीति सवभाव से ही अषसमता अर्थात ‘ पहचान की राजनीति ’ को सवीकार करती है । किसी दल पर जब यह ठपपा लग जाता है कि वह दलित
अषसमता को ही तरजीह देता है तो समाज के अन् वर्ग उससे कटने लगते हैं । इससे समावेशी राजनीति की सयंभावना खतम हो जाती है । मायावती ने यह मिथक 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में तोड़ा जब उनहोंने सोशल इयंजीनियररयंग द्ारा ‘ सैंडविच ’ गठबयंधन बनाया । इसमें उनहें सैंडविच के दो छोर की तरह न केवल ब्राह्मणों और दलितों का समर्थन मिला , वरन अयंदरूनी लफिंलग के रूप में समाज के अन् वगगों का भी समर्थन मिला । हार्वर्ड लव्वलवद्ाि् में व्ाख्ान के दौरान मायावती की सोशल इयंजीनियररयंग के प्रति मुझे श्ोताओं में काफी उतसुकता , आशा और रोमायंच दिखा । उनमें मायावती को भावी रा्ट्ी् नेता के रूप में देखने की इचछा थी , लेकिन मायावती अपनी सोशल इयंजीलन्ांरग को आगे न ले जा सकीं । वह अषसमता की राजनीति और समावेशी राजनीति में समनव् न कर सकीं । दलितों को लगा कि उनकी ‘ अपनी ’ सरकार बनने के बावजूद वे सत्ता से बाहर हो गए , क्ोंकि मायावती ने ब्राह्मणों , मुषसिमों आदि को सत्ता में ज्ादा भागीदारी दे दी थी । वहीं से दलितों का ‘ अषसमता ’ से मोहभयंग हो गया और उनहें अपनी आकांक्षाएयं अधिक
12 दलित आं दोलन पत्रिका flracj 2021