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सवामवाजिक समरसतवा से होगवा भेदभवावमुक्त समवाज कवा निर्माण
डा . सर्जय सोनकर शास्त्ी
भी समाज में सामाजिक एकता के लिए समरसता का होना नितांत
किसी
आवशयक है । ्पीतढ़यों से चले आ रहे सामाजिक नियमों के दायरों से बाहर आकर और लोगों की सोच में ्परिवर्तन से ही सामाजिक समरसता को हासिल किया जा सकता है । वासिव में देखा जाए तो सामाजिक समरसता एक बहुव्यापी आयाम है । मानव , ्पशु-्पक्षी , जड़-चेतन आदि सभी में सामंजसय हेतु समरसता अ्परिहार्य है । मानव समाज निर्माण में संगठन बनाये रखने के लिए यह ्परम आवशयक ्परिससरति है । वर्ण , वर्ग , जाति , समदूह , समिति , संसरा , धर्म , समप्रदाय , सभयिा , संस्कृति सभी में अनुवांशिक समरसता होने ्पर ही समाज का सवरू्प संगठित , सुवयवससरि एवं समृद्धशाली बना रह सकता है । इस आधार ्पर संसार में सामाजिक समरसता की अवधारणा एक महत्त्वपूर्ण एवं विचारणाीय विषय है । सामाजिक समरसता की अवधारणा का आधार प्रककृति , प्राककृतिक नियम तथा प्रककृतिजनय विधाओं ्पर आधारित प्राककृतिक जीवन-्पद्धति है कयोंकि जिस प्रकार प्रककृति किसी के साथ भेदभाव नहीं करती है , उसी प्रकार से प्रककृतिजनय जीवन- ्पद्धति में भी भेदभाव का कोई सरान नहीं है । भारतीय लोक-जीवन में मानव , जीव-जनिु एवं प्रककृति के संरक्षण तथा उनका वयावहारिक सवरू्प है । इसलिए इसमें सामाजिक विषमताओं का कोई सरान नहीं है ।
बाह्य शसकियों के शासनकाल से ्पहले भारतीय समाज में किसी तरह के भेदभाव एवं विषमता का अवगुण नहीं था , ्परनिु वाह्य शसकियों द्ारा हिन्दू समाज को तोड़ने के लिए
46 flracj & vDVwcj 2023