भी है । मई 1916 का यह भाषण दुनिया की कई भाषाओं में छ्प चुका है । इसी भाषण में भारत में जाति प्रथा के उदगम और विकास के बारे में विसिार से बताया गया है । जाति के विनाश के बारे में उनहोंने लाहौर के जात-्पाँत तोड़क मंडल के लिए जो भाषण तैयार किया था , उसमें भी इन विचारों को और ्पुख़िा किया गया है ।
जात-्पाँत तोड़क मंडल वाले रिांतिकारिता का चोला तो धारण किए हुए थे , लेकिन वे जातिप्रथा के ज़हर के मदूल कारणों ्पर चर्चा से बचना चाहते थे । शायद इसीलिए उनहोंने डा . अंबेडकर से आग्ह किया कि उस भाषण में कुछ बदलाव कर दें । लेकिन वह बदलाव के लिए राज़ी नहीं हुए । नतीजा यह हुआ कि उनका भाषण कैंसिल कर दिया गया । उस भाषण को एक किताब की
शकल में छा्प दिया गया और वही किताब अन्निहिलेशन ऑफ़ कासट , डा . अंबेडकर के राजनीतिक-सामाजिक दर्शन के बीजक के रू्प में ्पदूरी दुनिया में ्पहचानी जाती है ।
जाति के उदगम और उसके विकास की वयाखया के दौरान ही डा . अंबेडकर ने जाति संसरा में मनु की संभावित भदूतमका का विसिार से वर्णन किया है । मनु के बारे में उनहोंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगे तो बहुत ही हिममिी रहे होंगे । डा . अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक वयसकि बना दे और बाकी ्पदूरा समाज उसको सवीकार कर ले । उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानदून बना देगा और ्पीढ़ी-दर-्पीढ़ी उसको मानती रहेंगी । हाँ , इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगे , जिनकी ताकि के नीचे ्पदूरी आबादी दबी रही होगी और वह जो कह देंगे , उसे सब मान लेंगे और उन लोगों की आने वाली नसलें भी उसे मानती रहेंगी । उनहोंने कहा कि मैं इस बात को ज़ोर देकर कहना चाहता हदूँ कि मनु ने जाति की वयवसरा की स्थापना नहीं की कयोंकि यह उनके बस की बात नहीं थी । मनु के जनम के ्पहले भी जाति की वयवसरा कायम थी । मनु का योगदान बस इतना है कि उनहोंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया । जहां तक हिन्दू समाज के सवरू्प और उसमें जाति के महतव की बात है , वह मनु की हैसियत के बाहर था और उनहोंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भदूतमका नहीं निभाई । उनका योगदान बस इतना ही है उनहोंने जाति को एक धर्म के रू्प में स्थापित करने की कोशिश की ।
जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी , चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ािा या शातिर हो , संभाल ही नहीं सकता । इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्ाह्मणों ने जाति की संसरा की स्थापना की । मेरा मानना है कि ब्ाह्मणों ने बहुत सारे ग़लत काम किए हैं । लेकिन ऐसा कभी संभव ही नहीं था कि वह ्पदूरे समाज ्पर जाति वयवसरा को थो्प सकते । हिन्दू समाज
में यह धारणा आम है कि जाति की संसरा का आविषकार शासत्ों ने किया और शासत् तो कभी ग़लत हो नहीं सकते । बाबासाहब ने अ्पने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उ्प्ेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़तम भी उ्प्ेश के ज़रिए नहीं किया जा सकता । यहां यह भी स्पषट कर देना ज़रूरी है कि अ्पने इन विचारों के बावजदू् डा . अंबेडकर ने समाज सुधारकों के तख़लाि कोई बात नहीं कही । जयोतिबा फुले का वह हमेशा सममान करते रहे । हाँ , उनहें यह ्पदूरा विशवास था कि जाति प्रथा को किसी महा्पुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक ्परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता ।
डा . अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वगटीकरण और उ्प-वगटीकरण होता है लेकिन ्परेशानी की बात यह है कि इस वगटीकरण के चलते वह ऐसे साँचों में तिट हो जाता है कि एक-्दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्र जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं । यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़तम किए बिना कोई तरक़्की नहीं हो सकती । सच्ी बात यह है कि शुरू में अनय समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वगषों में बंटा हुआ था । ब्ाह्मण , क्षतत्य , वैशय और शदूद्र । यह वगटीकरण मदूल रू्प से जनम के आधार ्पर नहीं था , यह कर्म के आधार ्पर था । एक वर्ग से ्दूसरे वर्ग में आवाजाही थी । लेकिन हज़ारों वरषों की निहित सवारषों कोशिश के बाद इसे जनम के आधार ्पर कर दिया गया और एक-्दूसरे वर्ग में आने-जाने की रीति ख़तम हो गई । और यही जाति की संसरा के रू्प में बाद के युगों में ्पहचाना जाने लगा । अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाए और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उ्पल्ि कराए जाएं तो जाति वयवसरा को तज़ं्ा रख ्पाना बहुत ही मुसशकल होगा । और जाति के सिद्धांत ्पर आधारित वयवसरा का बच ्पाना बहुत ही मुसशकल होगा । अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के जयोतिराव फुले , डॉ . राममनोहर लोहिया और डा . अंबेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा । �
flracj & vDVwcj 2023 43