eMag_Sept-Oct 2023_DA | Page 18

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गए , ये लोग शिक्षित होते गए । जहां एक ओर विज्ान की चहुमुँखी तरककी ने दुनिया को अ्पनी मुठ्ी में समेट लिया है , वहीं शदूद्रों द्ारा हिं्दू धर्म ग्ंरों को अधिकाधिक रू्प में पढ़ा जाने लगा है । सविंत् भारत में संवैधानिक संरक्षण और प्र्त् सुविधाओं , अ्पने अधिकारों को समझने और उनहें ्पाने के कारण से ्परं्परावादियों के अनेक बंधन शिथिल होते गए । वर्तमान में भी जो सनातनी ( वैदिक ) साहितय उ्पल्ि है , उसमें अभिजातय एवं सवर्णवादी प्रवृतत्यों के लक्षण सर्वाधिक वयापि हैं । उसमें शासक और शोषित दोनों ही भावनाएँ सव्तत् नजर आती हैं ।
अंबेडकरवाद की तद्िीय मुकि शंखला का आरंभ 1975 के बाद प्रारंभ होता है । 1975 के बाद दलित चेतना की जो धारा विकसित हुई , वह इसलिए विशिषट है कि उसने हिंदी जगत में अ्पनी ्पृथक और विशिषट ्पहचान बनाई । यह प्रयास अभिनव एवं महतव्पदूण्त है , कयोंकि अभी तक ऐसा प्रयास किसी युग में नहीं किया गया था । एक ्पृथक धारा के रू्प में हिंदी दलित विषयक साहितय इसी युग में अससितव में आया । यही नहीं बसलक उसे ्परिभाषित भी इसी काल में किया गया । यह धारा समग् रू्प में अंबेडकर- दर्शन से विकसित हुई और यह दर्शन ही उसका मदूलाधार बना । इसमें कोई दो राय नहीं कि अंबेडकर-दर्शन में दलित-मुसकि की अवधारणा की अभिवयंजना ही वर्तमान हिंदी दलित विषयक साहितय की प्रतिबद्धता है । इसने नए सौंदर्यशासत् की स्थापना की जो सविंत्िा , समता और बंधुतव के सिद्धांतों ्पर आधारित है । इस धारा ने अ्पने सौंदर्यशासत् से हिंदी मुखयिारा के साहितय का मदूलयांकन कर उसे काफी हद तक दलितों के लिए अप्रासंगिक साबित किया है । इसने प्रेमचंद्र , निराला एवं अनय रचनाकारों तक का ्पुनमदू्तलयांकन किया और उनकी कई रचनातमक स्थापनाओं ्पर प्रश्नचिह्न भी लगाए । वर्तमान हिंदी दलित विषयक साहितय इस अर्थ में भी विशिषट है कि साहितय की सभी विधाओं में उसका विकास हो रहा है ।
यद्यपि फुले और अंबेडकर ने संसरागत प्रयत्नों के माधयम से दलितों के ्पक्ष-्पोषण की
बात की लेकिन 1970 के दशक के बाद कई संसराएं सामने आती हैं , जिनहोंने अ्पने प्रयासों से दलितों के उतरान ्पर कार्य किया । इस संदर्भ में दलित विषयक साहितय प्रकाशन संसरा , अंबेडकर मिशन , दलित आर्गनाइजेशन , राषट्रीय दलित संघ , दलित राइटर्स फोरम , दलित साहितय मंच , लोक कलयाण संसरान आदि के माधयम से दलितों की ससरति सुधारने के संदर्भ में अनेक कार्य किए गए । इन दलित संसराओं ने जिन दो महतव्पदूण्त ्पक्षों की ओर धयान आककृषट कराया उनमें एक है दलितों की सामाजिक ससरति में सुधार और ्दूसरा दलितों के लिए आरक्षण की मांग । इस संदर्भ में भारतीय संविधान में संशोधन का भी प्रावधान किया गया और संसराओं में समाचार ्पत्ों , लेखों और गोसषठयों का भी सहारा लिया जिसके माधयम से दलितों को जागरूक और एकतत्ि करने का कार्य किया गया । यह धयान देने योगय तथय है कि इन संसराओं ने दलित चिंतन को राजनीतिक सवरू्प भी प्रदान किया और समाज में एक विशेष वर्ग का नए सिरे से ध्ुवीकरण किया ।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि वर्तमान सामाजिक एवं राजनीतिक ्परिप्रेक्य में दलित
विमर्श चिंतन का एक प्रमुख हिससा बन चुका है । मौजदू्ा दलित विषयक साहितयकारों ने दलित विषयक लेखन को स्थपित करने के लिए कड़ा संघर्ष किया । यह उनके संघरषों का ही ्परिणाम है कि हिंदी जगत और मीडिया ने एक शताब्ी की लंबी उ्पेक्षा के बाद दलित साहितय को सवीकार किया और उसे अ्पने ्पत्ों एवं पत्रिकाओं में थोड़ा-थोड़ा सरान दिया । लेकिन यह भी तब संभव हुआ , जब सामाजिक ्परिवर्तन की राजनीति ने नई दलित चेतना विकसित की और उसका प्रभाव सं्पदूण्त संविधान ्पर पड़ा । इसलिए यह हिंदी जगत की राजनैतिक विवशता भी है । इस मत से कुछ तवद्ि दलित चिंतकों की असहमति हो सकती है , ्परंतु सत्ा के बनते- बिगड़िे समीकरण भी दलित विषयक साहितय को प्रभावित करते हैं , इस बात से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है । कुछ हद तक यह युग दलित विषयक पत्रकारिता के लिए भी जाना जाएगा , कयोंकि दलित विषयक साहितय के साथ-साथ दलित विषयक पत्रकारिता का भी सशकि विकास इस युग में हुआ है । इसलिए दलित चेतना के इस वर्तमान युग को दलित ' नवजागरण ' युग का नाम भी दिया जा सकता है । �
18 flracj & vDVwcj 2023