वयवसरा में त्पसने के साथ दरिद्रता की आग में जल रहा था । इसके ्पीछे कारण यह था कि हमारे सिद्धांत सदियों से ईशवरककृि , अ्पौरुषेय एवं प्रश्नों से ्परे माने जाते रहे , कयोंकि इन सिद्धांतों की जड़ें हमारे जेहन में इतनी गहरी कर दी गई थीं , साथ ही इनकी वयाखया ऐसी की गई थी जिनका कोई अकाट्य प्रमाण नहीं
था । ऐसे मृत्व , अस्पृशय दलित समाज में भगवान बुद्ध के ्पशचाि कई शताब््यों तक कोई एक अकेला ऐसा सामाजिक चिंतक भारत में नहीं अवतरित हुआ , जिसने इन तथाकथित सिद्धांतों का खंडन किया हो । हजारों वरषों से शोषित , ्पीतड़ि , दलित , अछटूि्पन , शासक-्पोषक , सवर्ण वगषों के जघनय एवं अमानवीय शोषण , दमन ,
अनयाय के विरुद्ध छोटे-मोटे संघर्ष को संगठित रू्प देने का कार्य सर्वप्रथम अद्भुत प्रतिभा , सराहनीय निषठा , नयायशीलता , स्पषटवादिता के धनी बाबा साहब युग्पुरुष डा . भीमराव अंबेडकर जी ने किया । आ्प ज्ान के भंडार और दलितों एवं शोषितों के मसीहा बनकर भारतीय समाज में अवतरित हुए । आ्पने दलितों एवं शोषितों को समाज में सर ऊंचा कर बराबरी के साथ चलना सिखाया । आ्प ऐसे समाज की केवल कल्पना ही कर सकते हैं , जब हमारे ्पुरखों में से कुछ को इनसान जैसी शकल-सदूरत होने के बावजदू् , उनहें सवर्ण समाज इनसान नहीं समझता था । ऐसे समाज के प्रति बाबा साहब ने सवससितव की सामथय्त , अससमिा एवं रिांति की आग जलाई जिससे सामाजिक नयाय प्रापि के लिए अनेक दलित-शोषित कार्यकर्ता आतमबलिदान के लिए उनके साथ खड़े हो गए ।
्परं्परावादी वयवसरा ( वैदिक संस्कृति ) के कारण हजारों वरषों से कुचले गए समाज के लोग आज ' दलित ' संज्ा से जाने जाते हैं और उनके विरोध का प्रमुख कारण वर्ण-धर्म है । कर्म श्ेषठ न होने ्पर भी जाति के नाम से श्ेषठ कहलाने वाला वयसकि या समाज अ्पने आ्प में एक धोखा है । विशव की सभयिा और संस्कृति में ऐसा कहीं भी देखने को नहीं मिलेगा कि वयसकि को एक बार स्पर्श होने से छटूने वाला वयसकि अपवित्र हो जाए । भारत में अस्पृशयिा के इस जादुई सिद्धांत का कोई तार्किक जवाब किसी समाजशासत्ी के ्पास अभी तक उ्पल्ि नहीं है । यह अनदूठा और बेमिसाल सिद्धांत ्पदूण्तिया षड्ंत् और बेईमानी के अलावा कुछ नहीं दिखता है । जीवन की इन दगि एवं करुण ससरतियों से उबरने के लिए दलित साहितय के माधयम से दलित अ्पनी अससमिा को ्पहचानने का प्रयास कर रहा है - दलित कौन है , उसकी ससरति कया थी ? उसकी इस ससरति के लिए कौन उत्रदायी है , उनकी संस्कृति कया थी ? उसके ्पदूव्तज कौन थे ? यह चिंतन ही दलित साहितय के प्रमुख विषय हैं । दलित समुदाय के बहुजन ( करोड़ों ) लोग आर्य हिंदुओं से सामाजिक नयाय की आशा लगाए हुए हैं , ्परंतु िमाांधता और असमानता के ्पक्षधर
ये लोग समानता के चिंतन को ताक में रख देते हैं । आज देश में करोड़ों निर्धन , अनपढ़ , बेरोजगार दलित वयसकि अ्पनी अससमिा की तलाश में भटक रहे हैं । गिरिराज किशोर के श््ों में कहें तो भारतीय समाज , खासतौर से जातीय हिं्दू समाज , जिसके कारण देश में दालित ्पन्पा और आज भी अ्पने विककृि रू्प में मौजदू् है , तवतचत् और ्परस्पर विरोधी मानसिकताओं का ्पुंज बनकर रह गया है । यह सब हजारों वरषों से चले आ रहे मानसिक और मनोवैज्ातनक अवरोधों का प्रतिफल है । यह मानसिक ग्ंतरयां ही विभिन्न सिरों ्पर अ्पने को सही साबित करती हुई दालित को बढ़ािी ही नहीं गईं अत्पिु उसे अस्पृशयिा और दमन का शिकार भी बनाती गईं । इसी का फल था कि दलितों को भी यह समझाया गया कि दालितय कर्मफल है ।
संसार में ऐसा कोई देश नहीं होगा जो मानव- मानव में इतना भेद रखता हो । ्परंतु भारत का दलित , वह शोषित मानव है जो ्पैदा हुआ तब भी दलित है , जिंदा रहेगा तब भी दलित है और मरेगा तब भी दलित है । अर्थात आज भी दलित समाज समृति युग की ्परं्परा में जी रहा है । राजनीति ने वर्तमान दौर में दलितों को असीमित अधिकार दिए हैं और दलितों को इससे काफी राहत भी मिली है ्परंतु कभी-कभी सनातनी वयवसरा के शिकार कुछ दलित आज भी हो जाते हैं ।
वर्तमान समय में दलितों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती उनकी जातीय अससमिा एवं आर्थिक ससरति को लेकर है कयोंकि जगतगुरु से लेकर छोटे धार्मिक मठाधीशों तक किसी को भी इस बात की चिंता नहीं है कि दलितों को निरंतर शोषण एवं उत्पीड़न से कैसे बचाया जा सकता है ? समाज में उनहें सममानजनक ससरति में कैसे लाया जा सकता है ? कुछ ्परं्परावादी दलित चिंतक साहितयकार , समानता और भ्रातृतव ्पर आधारित बौद्ध एवं अंबेडकरवादी सिद्धांत की ओर आकर्षित हो रहे हैं , जो भारतीय संविधान की आतमा भी है । इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जैसे-जैसे अंग्ेजी शासन काल में अछटूिों और शदूद्रों के लिए शिक्षा के द्ारा खुलते
flracj & vDVwcj 2023 17