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जाति का विनाश चाहते थे डा . अंबेडकर
र्ीरेंद्र सिंह यादर्
इसमें कोई शक नहीं कि वर्ण वयवसरा के माधयम से ्परं्परावादियों ने एक प्रकार की निर्णायक संस्कृति और मनोवैज्ातनक जीत हासिल कर ली है । शायद इसकी प्रतितरिया के कारण ही दलित चेतना ्पदूण्तिः उभार ्पर है । डा . अंबेडकर ने महसदूस किया छुआछटूि के विनाश के लिए अनिवार्य है कि जाति का विनाश हो । साथ ही वर्ण वयवसरा जिस ्पर जातियां आधारित हैं , का विनाश हो । चदूंकि जाति हिं्दू धर्म का प्राण है , अतः जब तक हिं्दू धर्म इसके वर्तमान रू्प में प्रचलित है तब तक जाति प्रथा रहना सवाभाविक है । हमारे यहां जाति सामाजिक , राजनीतिक एवं आर्थिक जीवन का मदूल स्ोि है अर्थात जाति सामाजिक संसकारों एवं रिशिों की सीमा तय करती है ।
दलित संवेदनाओं को अ्पने जीवनकाल में निरंतर भोगते रहने के कारण डा . अंबेडकर का अनुभव प्रगाढ़ था । सामाजिक एकता का सिद्धांत उनको बौद्ध धर्म के अंदर ही मिल गया । यही कारण था कि उनहोंने अ्पने कई अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म सवीकार कर लिया था । उनका यह कदम हमेशा विवादास्पद ही रहा है । किंतु यदि हम उनके धर्म ्परिवर्तन के ्पीछे की वासितवक भावना को समझें तो हमें प्रतीत होता है कि इस धर्म ्परिवर्तन के ्पीछे उनका यह विशवास था जो उनहें सामाजिक एकता के आदर्श की ओर ले गया । इसका एक ्दूसरा ्पक्ष भी है । संभवतः उनको बौद्ध धर्म की महत्ा का अहसास न होता यदि वह पश्चिम के उदारवादी दृसषटकोण के सं्पक्फ में न आते । उनहोंने कई विदेशी समाजों का गहन अधययन किया था और इन समाजों की जो विशेषता उनको विशेष रू्प से प्रिय थी ,
वह थी सामाजिक एकता । उनको यह अहसास हुआ कि भारतीय धर्म-दर्शनों में बुद्ध-दर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जो सामाजिक एकता का आदर्श प्रापि कर सकता है । जहां टैगोर ने आधयासतमक मानवतावाद का सिद्धांत प्रचारित किया , नेहरू ने समाजवादी दृसषटकोण को समझने-समझाने का प्रयास किया , वहीं डा .
अंबेडकर ने जातीय संदर्भ में पश्चिमी उदारवादी दृसषटकोण की महत्ा को समझाने का प्रयत्न किया । उनकी इस भदूतमका को उचित सरान दिया जाना चाहिए ।
हमारे तथाकथित हिं्दू समाज की सनातनी वयवसरा में भारतीय दीन-दलित समाज अज्ानांधकार में िड़िड़ाने के साथ चातुव्त्य्त
16 flracj & vDVwcj 2023