और कालिे रंग के शूद्र की वैचारिकी हिनदू समाज में अनौचितयपूर्ण चिनरन है । जब एक ही परिवार में चारों वर्ण के लिोग थिे , तो वर्ण का रंग के सनदभ्म में विवेचना अवैज्ाचनक है । कणव ऋचर् कालिे रंग के थिे । ऐसे में उनके वयसकरतव विशलिेर्ण को रंग के अथि्म में विवेचित करके उनके चलिए श्ेणी निर्धारण दुषकि कार्य ही है ।
वर्ण-वयवस्था की हिनदू अवधारणा सारगर्भित , सतय के अधिक निकट और सर्वमानय है , कयोंकि वर्ण की उतपचत्त को मानव की उतपचत्त के समान की विवेचित किया गया है । मानव की उतपचत्त प्राकृतिक पंचततवों से निर्मित मानव शरीर और ईशवि प्रदत्त प्राण के संयुकर ्वरूप से समबसनरर
सनदभ्म में एक आशचय्मजनक तथय प्र्रुर है । ऋगवेद के दसवें मण्डल के सातवें अनुवाक् के नबबे क्र संखया के सूकर को पुरुर्सूकर कहते हैं । पुरुर् सूकर में सोलिि ऋचाएं ( श्लोक ) हैं । ऋचा संखया बारह में मात्रा एक जगह वर्ण का उल्लेख है । जहां तक वर्ण वयवस्था की बात है तो वह समपूण्म वेद में कहीं नहीं है । उस ऋचा के अनरग्मर मुख से रिाह्ण , भुजाओं से क्षत्रिय , जंघा से वैशय और चरण से शूद्र होने का उल्लेख किया गया है । पुनः एक ऋचा बाद यानी ऋचा संखया चौदह में मुख से ्वग्म , नाभि से अनररिक्ष एवं चरण से पृथवी दर्शाया गया है । इससे प्रतीत होता है कि वैदिक ऋचर् का मनरवय शूद्रों का
एवं पितृप्रधान समाज थिा , जहां पिता अपनी सनरान ( पुत्र एवं पुत्री ) का गुरु भी थिा । वैदिक युग में अधयातर एवं अधयातर का वयावहारिक रूप लिोक जीवन में वया्र थिा । ऋगवैचदक समाज में किसी प्रकार की जचटलिरा नहीं थिी । वैदिक कालिखणि में ्वाथिमी , अवयावहारिक , अपहरण करने वालिे , लिुटडेिों एवं चोरों का भी विवरण प्रा्र होता है । परनरु समपूण्म लिोक जीवन धैर्य , क्षमा , ( दया , करुणा ) इसनद्रयों पर नियनत्राण , पवित्रता , चोरी न करना , बुद्धिमत्ता , ज्ान , सतय , अक्ोर , अहिंसा जैसे मूलिभूत मूलयों से संचाचलिर थिा । जातियां भी नहीं थिीं । अतएव वैदिक परमपिागत आधार पर वर्ण-वयवस्था की कलपना
है । मनुषय को जिस विराट् पुरुर् ने अपने विभिन्न अंगों से उतपन्न किया है , उसी ने अपने महत्वपूर्ण अंगों के ही आधार पर मानव-वर्ण का भी निर्धारण किया है । प्राचीन भारतीय धर्मग्न्थ ऋगवेद के पुरुर् सूकर में यही उल्लिखित है कि विराट् पुरुर् के मुख से रिाह्ण , बाहु से क्षत्रिय , उरु से वैशय और पैरों से शूद्र वर्ण की उतपचत्त हुई । यह अवधारणा ‘ वैदिक परमपिागत अवधारणा के पुरुर् सूकर ’ के नाम से जानी जाती है ।
वर्ण-वयवस्था की वैदिक अवधारणा के
अपमान करना नहीं रहा होगा । वेद ्वयंभू हैं , किनरु इसका संकलिन रिचर््म वयास ने किया थिा , इसीचलिए उनिें वेदवयास भी कहते हैं । शूद्र शबद की वर्तमान वयाखया ( मनु्रृचर ) के अनुसार- वे ्वयं शूद्र ऋचर् थिे ।
वर्ण-वयवस्था की वैदिक एवं परमपिागत रथिाकचथिर वर्तमान अवधारणा भारतीय दर्शन का त्रुटिपूर्ण पाशचातय चिनरन है , कयोंकि वैदिकयुग में वर्ण भेद अथिवा वर्ण-वयवस्था जैसा कोई चवर्य नहीं थिा । ्वचण्मर वैदिक युग वर्ण एवं जातिविहीन थिा । वैदिक समाज पितृमूलिक
कपोलिकसलपर है ।
ऋगवेद के उपरोकर अथिवा दैवी अवधारणा की प्रचक्ष्ररा का पता इस बात से भी चलिरा है कि ऋगवेद के दशम् मण्डल के चतुथि्म अधयाय के सूकर-90 की ऋचा संखया-12 एवं 14 को एक साथि देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि पुरुर् सूकर को अतिरिकर धयान से अधययन करने की आवशयकता नहीं है । विराट् पुरुर् के पग से मात्र शूद्र की उतपचत्त नहीं है , बसलक उसी विराट पुरुर् के पैर से पृथवी की उतपचत्त का भी उल्लेख है । पैर से उतपन्न शूद्र यदि अपवित्र एवं निनदनीय
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