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से है । इन मूलयों का नियमन हिनदू समाज वयवस्था को समुचित एवं वयवस्थित रूप से संचाचलिर रखने के चलिए किया गया है । हिनदू समाज के नियम ही वयवहारों और आचारों के चलिए मूलय आधारित होते हैं और इन मूलयों पर आधारित आचरण ही मर्यादित होते हैं ।
हिन्दू वर्ण-व्यवस्ा की अवधारणा
समाज अथिवा समाजशा्त्र की पसशचरी अवधारणा में वर्ग , वर्ण और जाति शबदों को सामानय अथि्म में चलिया जाता है , परनरु भारतीय लिोक जीवन में इन तीनों का अनरि विशेर् सनदभ्म
परनरु हिनदू सं्कृचर में वर्ण ही मुखय होता है , जाति उसी वर्ण का चव्रृर रूप और वर्ग भारतीय जीवन शैचलियों का संघ अथिवा संगठन । चूंकि वर्ण इनमें सर्वप्रथिर द्रषटया माना गया है , अतएव हिनदू समाज में वर्ण की अवधारणा विवे्य योगय है । वर्ण-वयवस्था की सामाजिक अवधारणा में एक चिनरन यह है कि भार्ा एवं साहितय के प्रणयन में वर्णमालिा का जो महातमय है , वही महातमय मानव समाज के वयवस्थित संचालिन में वर्ण-वयवस्था का है अथिा्मत् वर्ण अथिवा अक्षरों की मालिा की भांति वर्ण एक सामाजिक मालिा भी है । हिनदू समाज-वयवस्था में वर्ण को पुषपों के रूप में मानय किया गया है , जिनकी मालिा
एक विशेर् वर्ण के सद्य किलिाते थिे । तीसरे चिनरन के अनुसार- वर्ण का अथि्म है ‘ वयसकर की वृत्ति ’ अथिवा ‘ वयसकरयों का ्वभाव ’। इसका अथि्म है कि आरमभ में जो वयसकर समान वयवहार प्रदर्शित करते थिे अथिवा जिन वयसकरयों की ्वभाव समबनरी विशेर्राएं एक-दूसरे के समान थिीं , उनसे एक-एक वर्ण का निर्माण हुआ ।
वर्ण-वयवस्था की सामाजिक अवधारणा का चौथिा चिनरन यह है कि वर्ण का समबनर रंग से हुआ और जिन वयसकरयों का रंग एक समान थिा , वे एक वर्ण के सद्य हो गए । इसी आधार पर आरमभ में दो ही वर्ण हुए , गौर वर्ण अथिा्मत् आर्य और कालिा वर्ण अथिा्मत् दास या अनार्य ।
में किया गया है । वर्ग एक संघ है ; जैसे श्चरक वर्ग , पूंजीपति वर्ग इतयाचद । जाति का आधार जनर है । जाति की प्राप्र कई आधारों पर होती है ; जैसे- भार्ा के आधार पर , क्षेत्र के आधार पर , पेशे के आधार पर , अनुलिोम-प्रचरलिोम विवाह के आधार पर इतयाचद । वर्ण के आधार भी मानव समाज को वगमीकृत किया गया है , जिसे पाशचातय देशों में मुखयरः रंग के आधार पर कालिा वर्ण और गौर वर्ण कहा जाता है । जाति , वर्ग और वर्ण की पसशचरी वैचारिकी का्ट , क्लास और कलिि की बात की जाती है ,
को संयुकर रूप से समाज के गलिे में डालिा गया है ।
दूसरा चिनरन यह है कि धातु यानी चक्या रूप से वर्ण शबद की वयुतपचत्त हुई है , जिसका अभिप्राय है वरण करना अथिवा चयन करना , अथिा्मत् अपनी शसकर , क्षमता रथिा योगयरा के अनुरूप ्वे्छिा से कार्य का चुनाव करना । इसी परिपे्रक्य में अनयत्र यह उल्लिखित है कि ‘ वर्ण ’ शबद बरी धातु से बना है जिसका अथि्म शै धारण करना । इसका अथि्म यह हुआ कि आरमभ में जो वयसकर एक चनसशचर वयवसाय को चुनते थिे , वे
कालिे और गोरे लिोगों को अलिग रखने के चलिए आरमभ में रंग के आधार पर वर्ण की अवधारणा की गई थिी । चूंकि पसशचर में आज भी रंग-भेद की नीति पाई जाती है और कालिा रथिा गोरा का संघर््म समाज में पाया जाता है , अतएव इस वैचारिकी को पाशचातय चिनरन कहा जाना उचित होगा । हिनदू सं्कृचर और समाज में रंग के आधार पर वर्ण के निर्माण की बातें मिथया प्रचार हैं , कयोंकि यहां रंग-भेद कभी भी दृसषटगोचर नहीं हुआ । शवेर अथिवा गौर रंग के रिाह्ण , लिालि अथिवा रकर रंग के क्षत्रिय , पीत रंग के वैशय
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