अतयाचार द्ािा हिनदू धर्म एवं सं्कृचर को मिटा देने का पूरा प्रयास किया । अपने प्रयास में असफलि होने पर उनिोंने भारतवर््म की विशालि एवं ्वाचभरानी आबादी को अपना पंथि न ्वीकरने पर दणि्वरूप गनदे-मैलिे कायषों में बलिपूर्वक लिगाया और अपमानजनक समबोरन से उनका एवं उनकी जातियों का नामकरण किया । कालिानरि में पवित्रता के आधार पर अपवित्र कायषों में संलिग्न भारतीयों के साथि भेदभाव एवं छिुआछिूत का बर्ताव किया जाने लिगा । हिनदू समाज के इस सं्किण अथिवा सामाजिक उतार-चढ़ाव के मुखय कारण विदेशी शासक रहे , जिनिोंने समाज में भेदभाव की नींव रखी । अन्यथा , हिनदू सं्कृचर में सतयचनषठ वयवहार एवं मर्यादित आचरण , वर्ण-वयवस्था में भेदभाव का अभाव , जातिविहीन ्वचण्मर वैदिक युग , संगठन का प्राकृतिक भाव की उदात्तता दिखाई देती है और भारतीय धर्म ग्न्थों में भेदभाव का कहीं उल्लेख नहीं चरलिरा है । समपूण्म भेदभाव कृत्रिम , औचितयिीन और विदेशी पंथिों की देन है ।
हिन्दू संस्कृ ति में सत्यनिष्ठ व्यवहार एवं मर्यादित आचरण
हिनदू सं्कृचर को प्रकृचरररमी कहा गया है । प्रकृति का भी अपना धर्म होता है । प्रकृति अपने धर्म के अनुसार ही चक्याशीलि है । जब भी प्रकृति में अप्राकृतिक चक्याएं होने लिगती हैं , यह समझ लिेना चाहिए कि कोई अधार्मिक अथिवा अप्राकृतिक दुवय्मवहार मानव द्ािा प्रकृति के साथि किया गया है । प्रकृति के विरुद्ध मानवीय वयवहारों के कारण ही प्राकृतिक आपदाएं हुआ करती हैं । इसी प्रकार से हिनदू सं्कृचर भी धर्म पर आधारित है । धर्म में सतय को सववोपरि स्थान दिया गया है । सतय का अभिप्राय है सतय बोलिना , सतय सुनना और सतय ही देखना । वयवहार में जब सतय को धर्म के आलिोक में मानव समाज के अनय लिोगों के प्रति प्र्रुर किया जाता है , वह सतयचनषठ वयवहार बन जाता है । अनय सं्कृचरयों में जहां मिथयाचारिता का सहयोग लिेकर अपनी सं्कृचर को जीवित रखने का प्रयास किया जाता है , हिनदू सं्कृचर इसके
विपरीत ठीक इसचलिए आज तक जीवित है कि इसमें मिथयाचारिता का लिेशमात्र अवगुण नहीं पाया जाता है ।
हिनदू सं्कृचर में धृति , क्षमा , दम , अ्रेय , शौच , इसनद्रय-चनग्ि , ज्ान , विद्ा , सतय रथिा अक्ोर इन दस ततवों को समाहित किया गया है । सतय को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है । हमारे धर्म-ग्न्थों में ‘ सतयं वद , धर्मम् चर ’ का ्पषट चनददेश है । सतयरेव जयते का अथि्म यही है कि चवलिमब होता है , किनरु अनररोगतवा सतय की ही विजय होती है । सतय अपराजेय कहा गया है । सतयुग नामक एक युग भी भारतवर््म की कालिचक् वयाखया में आया है । उस युग में सतय पराकाषठा पर थिा । ‘ सतयम् शिवम् सुनदिम् ’ वैचारिकी में भी सतय का माहातमय दृसषटगोचर होता है । हिनदू सं्कृचर की यह सबसे बड़ी विशेर्रा कही जाती है कि वह सतयचनषठ वयवहार को मर्यादित आचरण के रूप में प्र्रुर करता है । उत्तम आचरण भी मर्यादा्युर होने पर अनुत्तम आचरण के रूप में परिभाचर्र होने लिगता है । मर्यादा का आशय हिनदू मानव मूलयों
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