doj LVksjh
है तो पैर से ही उतपन्न पृथवी पूजय एवं वनदनीय कैसे हो सकती है , यह विचारणीय है । इससे यह भी पता चलिरा है कि कहीं न कहीं हमारी सोच वैदिक कालि के बाद दूचर्र हुई है । वर्ण विभाजन के सनदभ्म में यह प्रश्न भी विचारणीय हैं कि ईरानी और पारसी समाज में चार जातियों का प्रसंग कहां से आया है ? यूनान के दार्शनिक प्लेटो ने भी मानव की चार जातियों का उल्लेख किस आधार पर किया है ? पसशचरी समाज में चार वर्ग ( क्लास ) भारतीय समाज के चार वणषों की ही तरह किस प्रकार से पाए जाते हैं ; जैसे इण्टलेकचुअलि क्लास ( रिाह्ण ), चरलिचटिी क्लास ( क्षत्रिय ), विजनेस क्लास ( वैशय ) और सर्विस क्लास ( शूद्र )? ऐसा प्रतीत होता है कि जिस अवधारणा को हमने ठुकरा दिया है उसे विशव के आधुनिक पसशचरी राषट्ों ने वयवहृत किया है ।
वैदिक चतुर्थाश्रम-वयवस्था की अवधारणा को अ्वीकार करने वालिों के अतिरिकर कुछि लिोग ऐसी अवधारणा वालिे भी हैं , जो चार वर्ण के स्थान पर केवलि तीन वणषों को ही ्वीकार करते हैं । डॉ . मंगलिदेव शा्त्री ने तो ऋगवेद के
पुरुर् सूकर पर शंका करके उसे उत्तर वैदिक कालिीन रचना माना है । कुछि लिोग पुरुर् सूकर को बाद में जोड़ा अथिवा प्रचक्ष्र किया गया मानते हैं । रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पु्रक में कुलि तीन वणषों का उल्लेख किया है । डॉ . भीमराव अमबेिकर ने भी यह आशय वयकर किया है कि वर्ण तीन ही थिे । शूद्र अथिवा वर्तमान दचलिर जातियां क्षत्रिय वर्ण की ही शाखाएं हैं । उनिोंने अपनी पु्रक ‘ शूद्र कौन ?’ में यह मत स्थापित करने का प्रयास किया है कि शूद्र भी उसी शाखा से हैं , जिसकी मुखय शाखा क्षत्रिय जाति के रूप में विकसित हुई है । हिनदू वर्ण- वयवस्था की अवधारणा के बारे में पौराणिक एवं ्रृचरयों के उद्धरणों का अवलिोकन किया जाए तो उनमें भी अधिकांशतः ने चारों वणषों की उतपचत्त को दैवी और भेद का आधार केवलि कर्म- विभाजन ही माना है । कालिानरि में उनमें सर्वाधिक प्रचक्ष्ररा लिाकर यह किलिावाया गया है कि चारों वणषों में भेदभाव थिा और उच्च-निम्न , पवित्र-अपवित्र और जयेषठरा-श्ेषठरा को लिेकर थिा ।
जातिविहीन स्वर्णिम वैदिक युग
भारतीय धर्मग्न्थों अथिवा वैदिक साहितय का अधययन करने पर यह ्पषट होता है कि वैदिक युग जातिविहीन थिा और तत्कालीन समाज में जातियों का अस्रतव नहीं थिा । जीवन जीने के प्राकृतिक सिद्धानर का कड़ाई से पालिन करते हुए मानव अपने सामाजिक जीवन को सफलि एवं आधयासतरक उत्कर्ष को प्रा्र करता थिा । जातिविहीन ्वचण्मर वैदिक युग का विशलिेर्ण करने के चलिए यहां तत्कालीन समाज की संरचना , वैदिक वाङ्मय के विविध आयाम , वैसशवक चिनरन में वैदिक सिद्धानर और जीवन जीने के विविध उपादानों पर प्रकाश डालिने का प्रयास किया गया है । ऋगवेद , उपचनर्द , रामायण , महाभारत , गीता , पुराण और ्रृचरयों के उदाहरणों द्ािा यह ्पषट करने का प्रयास किया जा चुका है कि वैदिक युग में वर्ण नहीं थिा और जब वर्ण ही नहीं थिा तो वर्ण-वयवस्था के होने का प्रश्न ही नहीं उठता । इसचलिए जातिप्रथिा का भलिा उसमें पाया जाना कैसे समभव हो सकता है ? वर्णविहीन ्वचण्मर वैदिक युग
10 vDVwcj & uoacj 2022