को जातिविहीन ्वचण्मर युग भी कहा जाता थिा । ऋगवेद के उत्तरवरमी भाग में वर्ण का उल्लेख है । किनरु वर्ण-वयवस्था के चिनरन का रंचमात्र भी भाव नहीं थिा । जातिविहीनता एक अलिग चिनरन है , जबकि जाति भेदभाव एक अलिग अवधारणा है । जातिविहीन वैदिक युग में जातिगत भेदभाव की स्थिति होने का प्रश्न ही नहीं उठता ।
वैदिक युग के लिोक जीवन में वर्ण समभाव के कई उदाहरण चरलिरे हैं ; जैसे-गाड़ीवान रैकव द्ािा राजा जनश्ुचर को वेद पढ़ाया जाना , शूद्र ऐलिूर् द्ािा ऋगवेद की कई मण्डलों की रचना , राजचर््म विशवाचरत्रा द्ािा शूद्र राजा सुदास को संरक्षण दिया जाना , सीता ्वयंवर में सभी वणषों के भाग लिेने की कथिा , द्रौपदी ्वयंवर में रिाह्ण ( भेर्रारी ) अर्जुन का भाग लिेना इतयाचद । वेद की कुलि 1151 शाखाओं में कहीं भी जातिवाद या जाति शबद नहीं है । समपूण्म वेद भेदभाव और वर्तमान कुरीतियों से रहित हैं । वेद में जाति की बात कया , ‘ जाति ’ शबद तक नहीं है । ऋगवेद के पुरुर् सूकर में जिन वणषों की उतपचत्त का उल्लेख है , उसमें भी कहीं वर्ण के चवर्य में कोई भेदभाव युकर वयवहार का निरूपण नहीं है । इससे भी ्पषट पता चलिरा है कि वैदिक युग में जाति-भेद की चर्चा का कोई औचितय नहीं है । वैदिक मानयराओं पर आधारित पौराणिक ग्न्थों में भी जाति-भेद का कोई उदाहरण नहीं चरलिरा है । सीता और द्रोपदी के वैवाहिक सं्कािोतसव के आलिोक में आयोजित ्वयंवर में भाग लिेने हेतु सभी वर्ण एवं जाति के पुरुर्ार्थी आमंत्रित किए गए थिे ।
हिनदू समाज में जातियों को सुनियोजित र्ड्ंत्र के अनरग्मर सत्ता के हितपोर्कों द्ािा विकसित किया गया है । प्रारमभ में मात्र वयसकर के कर्म और गुण-धर्म को इंगित करने वालिी जातियां धीरे-धीरे वंशानुगत समूह विशेर् से समबद्ध हो गईं । धीरे-धीरे हिनदू समाज में विभिन्न जातियों की श्ेणी वयवस्था का सृजन हुआ । जातियों के सृजन की परमपिा 20वीं शताबदी के पूर्वार्द्ध तक दिखलिाई देती है । जातियों के सं्रिण के साथि-साथि हिनदू समाज में उच्च-निम्न की भावना का भी विकास हुआ । धीरे-धीरे वंशानुगत
जातीयता एवं कर्मानुगत छिुआछिूत जैसी श्ेचणयां अनमनीय हो गईं । जातियों के सीमाबद्ध ्वरूप को बनाए रखने के चलिए जाति विशेर् की कुछि कमजोरियों को आधार बनाया गया और इस प्रकार की भावनाएं विकसित की गईं कि वे कमजोरियां वंशानुगत हैं और सदैव बनी रहेंगी । जातियों के मधय सामाजिक समबनर भी परिसीमित कर चलिया गया और अनरःचक्याओं की कठोर संरचना बनाई गई , जिसका अचरक्रण करना सामानय जन के चलिए समभव नहीं थिा ।
हिन्दू संस्कृ ति में संगठन का प्ाककृ तिक भाव
हिनदू सं्कृचर में हिनदू संगठन और हिनदुओं के संगठन में वही अनरि है , जो हिनदू दर्शन और हिनदुओं के दर्शन में है । हिनदू दर्शन और हिनदू संगठन वह है , जिसे सभी मानें ; जबकि हिनदुओं का दर्शन एवं हिनदुओं का संगठन वह है , जिसे केवलि हिनदू ्वीकारता हो । ‘ हिनदू ’ शबद ्वयं में एक संगठित शबद है , कयोंकि यह आधयासतरक शसकर एवं भौतिक शसकर के भावों का समुच्चय है । इन शसकरयों की चवलिगता जयों ही सुचनसशचर होगी , हिनदू सं्कृचर में बिखराव दिखलिाई देने लिगेगा । आधयासतरक एवं भौतिक ततवों से ही प्रकृति का निर्माण होता है , जो मानव मात्र के चलिए उपयुकर है । प्रकृतिपरक सं्कृचर होने के कारण ही हिनदू सं्कृचर लिोक जीवन के संगठन को संवहनीय विकास के आधारों से
समपुषट करती है । हिनदू सं्कृचर वयसकरवादी न होकर समूह की सं्कृचर है । इसमें संघ अथिवा संगठन मुखय है , जबकि वयसकर गौण है । भारतीय सं्कृचर में संगठन का प्राथिचरक आधार परिवार एवं उससे उन्नत सामाजिक संस्थाएं हैं । इन सामाजिक संस्थाओं का नियमन भी प्राकृतिक आधारों से ओतप्रोत है । इस सनदभ्म में यह भी उल्लेखनीय है कि कोई भी सामाजिक वयवस्था , जो प्राकृतिक नियमों से युकर होगी , वह सर्वमानय होगी , कयोंकि प्राकृतिक भाव सबको मानय होते हैं । प्राकृतिक भाव पर आधारित संगठन निःसनदेि भेदभावरहित होेता है । प्रकृतिपरक भारतीय सं्कृचर का संगठनातरक आवरण इतना सशकर एवं आकर््मणयुकर है कि उसमें प्रतयेक सं्कृचर को आतरसात् करने की अपूर्व क्षमता चवद्रान है ।
हिनदू सं्कृचर की अक्षुणण निधियों को जब हम आधुनिक समाज में वयवहृत करने का प्रयास करते हैं , तो हमें उन संगठनातरक मूलयों को भी आतरसात् करना होगा , जो वसुधैव कुटुमबकम् की वैचारिकी को प्रधान रूप से ्वीकार करते हैं । संगठन की प्रकृति समाजोनरुख होती है , परनरु समाज प्रकृति पर आधारित है , इसचलिए हिनदू सं्कृचर में संगठन का भाव भी प्राकृतिक है । हिनदू सं्कृचर प्रकृतिपरक होती है । यह विशेर्रा हिनदू सं्कृचर में ही पाई जाती है , इसचलिए हिनदू सं्कृचर में संगठन का प्राकृतिक भाव पाया जाना अतयनर ्वाभाविक है । हिनदू
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