eMag_Oct-Nov 2022_DA | Página 12

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सं्कृचर में संगठन के प्राकृतिक भाव का दृशयावलिोकन हमें वयसकरवादिता के दोर्ों को दूर करने वालिे पंच-ऋणों ( देव , ऋचर् , पितृ , अचरचथि , जीव ऋणों ), पंच महायज्ों ( देव , ऋचर् , पितृ , अचरचथि , भूत यज्ों ), पुरुर्ाथि्म ( धर्म , अथि्म , काम , मोक्ष ), कर्म-सिद्धानर , पुनर्जनर-सिद्धानर इतयाचद में हो जाता है । हिनदू सं्कृचर में संगठन के प्राकृतिक भाव की सामानय विशेर्राओं एवं उसके आधार का , हिनदू समाज के चार वणषों में विभाजन , जाति-वयवस्था , आश्र-वयवस्था , संयुकर परिवार की परमपिा , गांव-पंचायतों का महत्व , विवाह के धार्मिक ्वरूप , धर्म की प्रधानता , सं्कािों द्ािा वयसकर का समाजीकरण , सं्कृचर की प्राचीनता रथिा मौचलिकता , सं्कृचर की स्थापित गुणवत्ता और अनेकता में एकता के रूप में अवलिोकन कर सकते हैं ।
प्ककृ ति प्धान हिन्दू संस्कृ ति
हिनदू सं्कृचर पूर्णरूपेण प्रकृति के शाशवर सिद्धानरों पर आधारित सं्कृचर है । यही कारण है कि संसार की प्राचीन सभी सं्कृचरयां जहां
लिगभग समा्र हो गईं , वहीं हिनदू सं्कृचर अपनी प्रकृतिपरक विशेर्रा के कारण भयानक छिडेड़छिाड़ , नषट-भ्षट करने के उद्ेशय से किए गए अनेकानेक भीर्ण आक्रणों के बाद भी आज करोड़ों अनुयायियों के साथि गौरव रथिा समरान के साथि अडिग , अमर एवं निरनरि है । हिनदू सं्कृचर में संगठन का प्राकृतिक भाव पाया जाता है । यह सं्कृचर प्रकृति के शाशवर सिद्धानर की निरनरिरा रथिा लियबद्ध गतिशीलिरा से समबसनरर है । यह सं्कृचर इसचलिए प्रकृतिधर्मा किलिाती है कि भारतीय धर्म प्राकृतिक मानकों पर आधारित सामाजिक वयवस्थाओं का सिद्धानर है । उसके सर्र उपांग प्राकृतिक नियमों का अनुपालिन करते हैं और अपनी सनातन आधयासतरक ऊर्जा को बनाए रखते हैं । इसी आधार पर आज तक यह कहा जा रहा है कि प्रकृति एवं जीवन के हितपोर्ण के चलिए प्रगति के अननर आयाम ्वरः सुलिभ हो उठेंगे , यदि हिनदू सां्कृचरक संरचना को विशव के सर्र देशों में वयवहत किया जाए । हिनदू सं्कृचर का आधार प्रकृति है ; जैसे-व्त्र सं्कृचर में ऋतु
रथिा मौसम के अनुरूप व्त्रावरण का निर्धारण होता है ।
प्रकृति प्रधान होने से हिनदू सं्कृचर सववोपयोगी एवं सर्वग्ाह्य कही जाती है , जबकि अनय अथिवा गैर हिनदू सं्कृचरयां प्रकृति पराविमुख होने से ्वयं अपने चलिए भी हितकर नहीं होती हैं । वर्तमान में पंथिों और पांचथिक सं्कृचरयों के बीच चछिड़ा महाभारत का कारण यही है कि वे दोनों ही प्रकृतिधर्मा नहीं हैं , हिनदू सं्कृचर के अनुमोदन के विपरीत हैं और अपनी- अपनी संस्थापना हेतु विशव की सर्र सं्कृचरयों को आतरसात् कर लिेने की क्षमता नहीं रखकर सभी को समा्र कर देने में संलिग्न हैं । अपना भलिा चाहना उतना अनुत्तम नहीं है जितना कि सबका अहित चाहना । प्रकृति से शसकरशालिी कोई भी सं्कृचर नहीं होती हैं , यह जानते हुए भी अपनी सं्कृचर-शसकर के बलि पर पूरे विशव पर अधिकार जमाने की पांचथिक वैचारिकी का अनर इसचलिए आवशयक हो चलिा है , कयोंकि सभी पंथि मदानररा के कारण अपनी-अपनी सां्कृचरक शसकर को प्राकृतिक शसकर से अधिक
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