शसकरशालिी मान बैठी हैं ।।
हिन्दू धर्मग्रन्थों में प्क्षिप्तता
हिनदू धर्मग्न्थों की रचना जिस किसी ने भी की है , उसका उद्ेशय सदैव यही रहा है कि उसका लिाभ सर्र भारतीयों को समान रूप से प्रा्र हो सके , अतएव उन ग्न्थों में ऐसी कोई भी बात नहीं चलिखी गई होगी , जिसको लिेकर हिनदू समाज आपस में ही टकराव की स्थिति में आए और उसमें आपसी भेदभाव , ईषया्म , द्वेष आदि का प्रसार हो सके । वे ग्न्थ कहां हैं ? कया वर्तमान में उपलिबर ग्न्थ ही आदि अथिवा मूलि रूप में सुलिभ हैं ? उत्तर इसचलिए नहीं में चरलिरा है , कयोंकि सभी इस बात को जानते हैं कि
तक्षचशलिा , नालिनदा जैसे विशवचवद्यालयों में मूलिरूप में पड़डे हिनदू , जैन एवं बौद्ध ग्न्थों सहित सं्कृचर रथिा पालिी भार्ा इतयाचद के लिाखों ग्न्थों के संग्ि वालिे पु्रकालियों को अरब के विदेशी शासकों की कट्टर पांचथिक दानवाग्नि ने महिनों तक जलिाए रखा थिा । बाद में कणठाग् कुछि ग्न्थों की रचना पुनः हुई । जो याद थिे वे ही चलिखे जा
सके , शेर् की ्रृचर तक नहीं रही । इसी तरह बाद में चरिटिश शासकों ने फरूट डालिो और राजय करो की नीति के अनरग्मर छिलि-छिद्मपूर्ण सहानुभूति दिखलिाते हुए उन ग्न्थों का समपादन और प्रकाशन अपने ढंग से किया और जहां अवसर चरलिा , कुछि सामाजिक फरूट डालिने वालिी घटनाओं को प्रचक्ष्र किया ( यानी जोड़ा गया )। इस चिर सतय को जो नहीं मानते , वे विदेशी विद्ान् किलिाते हैं ।
ऐसे ही कुछि ्वदेशी लिोगों को विदेशी साहितय भकर अथिवा विदेशी मानसिकता के ्वदेशी साहितयकार कहते हैं । कुछि लिोग अधिक अच्छा किलिाने के चलिए तटस्थता की नीति अपनाते हैं , जैसे भारतीय धर्म के प्रसंग में पन्थ निरपेक्षता
के स्थान पर धर्मनिरपेक्षता की बात कहने वालिे होते हैं । प्रो . पी . वी . काणे ने भी ‘ हो सकता है कि रकराचरकार ( वसीयत ) समबनरी इस प्रकार के वाद-विवाद कालिानरि में चलिचपबद् हो गए हो ’ कहकर अपनी तटस्थ नीति को प्रकट किया है । व्रुरः यही सतय है कि हिनदू धर्मग्न्थों में प्रचक्ष्ररा चरिटिश शासकों ने ही की है । अपनी
सत्ता के दीर्घायु के चलिए भारतीयों को आपस में बांटने , भेदभाव एवं उच्च-निम्न जातियों की अवधारणा को प्रारोपित करने के उद्ेशय से भारतीय धर्मग्न्थों में बड़ी मात्रा में चरलिावट ( प्रचक्ष्ररा ) करवाया । बहाना थिा जन सामानय को भारतीय धर्मग्न्थों को सुलिभ कराना । यह कार्य 19वीं शताबदी के पूर्वाद्ध में चरिटिश लिेखकों द्ािा कराया गया । 1828 ई . से 1888 ई . के मधय हुए इस प्रयास के कार्यकालि को चरिटिश राजय का संक्रण कालि भी कहा जा सकता है , कयोंकि 1857 ई . का प्रथिर आन्दोलन चरिटिशों के चलिए एक चुनौती एवं उनके आतरचिनरन का चवर्य बन गया थिा । 1828 ई . में चरिटिश शासकों द्ािा समपाचदर एवं प्रकाशित प्रथिर ग्न्थ मनु्रृचर है , जिसमें अधिकतम प्रचक्ष्ररा है । मनु्रृचर हिनदू सं्कृचर की आचार-संहिता और मानव धर्म की नियमावलिी है , इसचलिए उस पर सर्वाधिक प्रहार किया गया है । इसमें बहुसंखयक रथिाकचथिर दचलिर जातियों में अतयचरक विद्रोह एवं अलिगाव उतपन्न करके समाज की भारतीय जनसंखया को दस-पनद्रह प्रतिशत कर देने के चलिए ही रथिाकचथिर ऊंची जातियों द्ािा उनिें यानी दचलिरों को अपवित्र करषों में संलिग्न एवं निम्न समबोचरर जातियों को यानी निर्धनता रथिा बदहालिी को सहन करती दचलिर जातियों के लिोगों को भड़काया गया है । इसी तरह से रिचर््म वालरीचक ( शूद्र ) विरचित रामायण में सीता का गृह- निषकासन और राम द्ािा शूद्र तप्वी शमबूक का वध और महाभारत में वर्णित एकलिवय के दाहिने हाथि का अंगूठा द्रोणाचार्य द्ािा गुरुदक्षिणा के रूप में कटवाकर चलिए जाने का भ्ारक , कथिानक के भाव का परिवर्तित और मिथयापरक उल्लेख है । ये सभी घटनाएं प्रक्षेपित ( चरलिावटी ) हैं । हिनदू धर्मग्न्थों में चरलिावट इसचलिए की गई , कयोंकि समाज में एकसूत्रता स्थापित करने और वयसकर रथिा समाज के सर्र कार्य-वयवहार को अनुशासित करने , उनिें वयवस्थाबद्ध बनाए रखने और समाज को उन्नति की ओर लिे जाने के चलिए युसकरसंगत विचार को धर्मग्न्थों में सूत्रीबद्ध किया गया थिा । इस प्रचक्ष्ररा को भारतीय ज्ान एवं सं्कृर भार्ा के विद्ानों ने
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