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माधयर से दचलिरों की पहचान होती थिी कयोंकि भारत की चातुर्वणय वयवस्था में प्राचीन प्रजातियों को शूद्रों की श्ेणी में रखा जाता थिा । समाज में बहिषकृर शूद्रों को ्पश्म करने से वयसकर अपवित्र हो जाता थिा । इस मानयरा के आधार पर शूद्रों को ‘ अ्पृशय ’ कह कर पुकारा जाने लिगा थिा जिसे आज भारतीय संविधान में ‘ अनुसूचित जाति ’ कह कर पुकारा जाता है ।
साहिसतयक दृसषट से देखें तो हिनदी साहितय का अधययन भारतीच एवं पाशचातय साहितय- सिद्धानरों के आधार पर हुआ है । इस साहितय परमपिा में दचलिर दृसषट को कोई स्थान प्रा्र नहीं हुआ है । यत्र-तत्र हिनदी साहितय में शूद्रों
की दीन-हीन दशा एवं छिुआछिूत का वर्णन अवशय हुआ है । परनरु आज पारमपरिक साहितय शा्त्र से अलिग हटकर दचलिर चवर्यक सैद्धासनरकी का ्वरूप विकसित हो रहा है । भारतीय साहितय में दचलिर चवर्यक सैद्धासनरकी का प्रथिर ्वरूप बौद्ध साहितय में ्पषट होता है । बौद्ध साहितय में सामाजिक समरसता एवं दचलिर क्ासनर का दर्शन दृसषटगोचर होता है । महातरा बुद्ध विशव के प्रथिर महापुरुर् थिे जिनिोंने उद्घोष किया थिा । ‘ अनर दीपो भव , अनर नाथिो भव ’ अथिा्मर अपना दीपक ्वयं बनो । यह वाकय दचलिर चवर्यक साहितय का सिद्धानर बनकर सामने आया । पाचलि साहितय में 51 विभुओं , 15 भिक्षुणियों , 18 उपासकों , 6 उपासिकाओं सहित 90 दचलिरों का उल्लेख चरलिरा है , जिनिोंने बौद्ध धर्म में उच्च स्थान प्रा्र किया थिा । आगे चलिकर बौद्ध धर्म की शाखाओं से सिद्ों और नाथिों की परमपिा का जनर हुआ । हिनदी साहितय में परमपिा का जनर हुआ ।
हिनदी साहितय में 84 सिद्धों और 9 नाथि कवियों का उल्लेख चरलिरा है । इनमें दचलिर कवियों की संखया पया्म्र मात्रा में देखने को चरलिरी है । इन कवियों ने जन भार्ा अपभ्ंश में सामाजिक समरसता के विचारों को अभिवयसकर दी । आगे चलिकर महाराषट् में नाथि सिद्धों की शाखा से वारकरी समप्रदाय उतपन्न हुआ । इस समप्रदाय में संत नामदेव , संत एकनाथि , संत तुकराम ने हिनदी में रचनाएं की है । इनकी परमपिा को आगे बढ़ाते हुए तेरहवीं-चौदहवीं सदी में संत कावय धारा का जनर हुआ । संत कावय परमपिा में कबीर , रविदास , गुरु नानक , दादू दयालि , पलिटूदास , रलिूकदास , सुन्दरलालि ,
हिन्ी साहित्य में 84 सिद्धों और 9 नाथ कवियों का उल्ेख मिलता है । इनमें दलित कवियों की संख्या पर्याप्त मात्ा में देखने को मिलती है । इन कवियों ने जन भाषा अपभ्ंश में सामाजिक समरसता के विचारों को अभिव्यक्ति दी । आगे चलकर महाराष्ट्र में नाथ सिद्धों की शाखा से वारकरी सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ ।
रज्जन आदि संत है । इनमें अधिकांश संत निम्न कही जाने वालिी जातियों से हैं । इन संत कवियों ने अपने साहितय में वर्ण-वयवस्था , मूर्ति-पूजा , अवतारवाद , आडमबिों का विरोध किया है । इस धारा ने निराकार रिह् की स्थापना कर सामाजिक समरसता के साहितय की रचना की ।
संत साहितय परमपिा की लिगभग दो शतासबदयों पशचार साहितय की दचलिर धारा भारत की लिगभग सभी भार्ाओं में पुनः उभरती दिखायी देती है । इसका कारण थिा कि भारत में अंग्ेजी राज के स्थापित हो जाने एवं ईसाई मिशनरियों द्ािा अछिूतों में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार हुआ । इस नवजागरण कालि में प्रायः सभी भार्ाओं में दचलिर रचनाकार हुए जिनिोंने साहितय की रचना की । साहितय की इस दचलिर धारा में महातरा जयोचरबा फुलिे का नाम अग्णी है । जयोचरबा फुलिे ने निबनर , संवाद पत्र , वैचारिक लिेखन , कावय रचना इतयाचद विधाओं में अपने साहितय को चलिखा है । सामाजिक कुरीतियाूँ , नारी शिक्षा ,
समानता उनके साहितय का मुखय चवर्य है । इसी क्र में केिलि में जाति से रछिुआरे अछिूत कवि के . पी . करुपन हुए , जिनिोंने सन 1913 में शंकराचार्य के अद्ैर दर्शन का नया विनयास करते हुए ‘ जाति कुमभी ’ नाम से कविता चलिखी । केिलि के दचलिर चवर्यक साहितय की पृषठभूमि में नारायण गुरु का आन्दोलन है । नारायण गुरु के शिषय थिे कुमारान आशान जिनिोंने अपनी रचनाओं के माधयर से जाति-प्रथिा पर कुठाराघात किया । इसी प्रकार रचरलिनाडु में आतरसमरान और कालिी कमीज आन्दोलन चलिाने वालिे पेरियार ई . वी . रार्वारी नायकर , साहितय के क्षेत्र में सचक्य रहे । पेरियार रामा्वारी नायकर के आन्दोलन को उत्तर भारत में चलिाने के श्ेय लिलिई सिंह यादव को हैं । लिलिई सिंह यादव के बाद आदि हिनदू आन्दोलन का नारा देने वालिे ्वारी अछिूताननद ने साहितय सृजन के द्ािा दचलिर समाज में क्ासनर चेतना प्रवाहित करने में महतवपूर्ण भूमिका निभायी । उनिोंने दचलिर समाज में जागृति के चलिए दचलिर महापुरुर्ों को अपने साहितय का चवर्य बनाया । दचलिरों को इस देश का मूलि निवासी सिद्ध करते हुए उनिें आदि-हिनदू नाम दिया ।
अतः बौद्ध धर्म के उदय से लिेकर ्वारी अछिूताननद तक साहितय में दचलिर दृसषट को स्थान अवशय चरलिा है परनरु सीमित अर्थो में । आज का दचलिर चवर्यक साहितय जिस सरग्रा से विकसित हुआ है उसमें इस साहितय का योगदान महतवपूर्ण है । अतः इन साहितयकारों की रचनाओं में दचलिर चवर्यक साहितय की नींव खड़ी करने में महतवपूर्ण भूमिका निभाई है । जिसे भारत रत्न डॉ . भीमराव आंबेडकर के उदय ने दचलिर दर्शन के रूप में परिवर्तित कर दिया ।
डॉ . आंबेडकर अपनी पु्रकें अपनी संतान से भी बढ़कर प्रिय हैं । वह कहते हैं , “ पु्रकें चलिखते हुए समय कैसे बीता जाता है , यह मेरी समझ में नहीं आता । लिेखन करते समय मेरी पूरी शसकर एकत्रित होती है । मैं भोजन की परवाह नहीं करता मैं कभी-कभी तो रात भर पढ़ता चलिखता बैठा रहता हूूँ । मैं उस समय कभी नहीं ऊबता , न ही मैं बहुत निरूतसािी और
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