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मजहब अपने समान नहीं मानता तो यह उस मजहब विशेर् की विचारधारा-विशेर् का चवर्य है , धर्म का चवर्य नहीं । इसचलिये किसी मजहब विशेर् की एकपक्षीय विचारधारा को छिोड़कर वालरीचक समाज को यह देखना चाहिये कि वह धर्म के कितना अनुकरूलि है । दो विभिन्न मजहब तो किसी न किसी अंश में विरोधी होते ही हैं । उनमें जो सदाचार की सांझी बातें थिोड़ी-बहुत कहीं-कहीं देखने को चरलिरी है , वो धर्म के कारण है । अत : महतव किसी मजहब की समानता-असमानता का नहीं अपितु महतव धर्म के अनुकरूलि होने में है । हिंदू समाज ने इस तथय को भलिीभांति समझा है । इसी कारण वह इतना सहिषणु बन पाया है । धर्म के इस महतव को विदेशी मजहब ना समझ पाने के कारण असहिषणु हो गये ।
प्श्न 4- हमें इतना नीचे क्यों जाना पड़ा ?
उत्तर - जब कोई मानव या मानव समाज ्वाधयाय और अभयास को आलिस और अज्ानता के कारण तयाग देता है तो एक दिन उसका पतन हो जाता है । ऐसी ही असावधानी के कालि में विदेशी ताकतों का आक्रण हुआ । प्रथिर मुसलिरान आक्ांरा और फिर अंग्ेजों के दुषप्रभाव से मनीर्ी वर्ग प्रताड़ित और पथभ्रषट दोनों एक साथि बड़ी संखया में वयापक ्रि पर हुये । परिणार्वरूप शा्त्रज् रिाह्णों के स्थान पर शा्त्र से अनचभज् रिाह्णों का प्रभाव बढ़ गया । ऐसा होने पर राषट् का क्षत्रिय वर्ग असावधान और उदंड रहने लिगा । दुषपरिणाम यह हुआ कि शा्त्र के कलयाणकारी मार्ग पर चलिने वालिी वर्णवयवस्था अपने गुण कर्म के शा्त्र समरर आधार को तयाग कर मात्र जनर के आधार पर ्वीकार कर लिी गयी । मानव धर्मशा्त्र मनु्रृचर में ्पषट कहा गया है : रिाह्ण की श्ेषठरा ज्ान से होती है ( 2 / 155 ) , सिर के सफेद बालिों से कोई बड़ा नहीं होता ( 2 / 156 ) और अनपढ़ विप्र नाममात्र का रिाह्ण होता है ( 2 / 157 ) इतयाचद । जनरना अनपढ़ रिाह्णों के अभिमान और शूद्रवर्ण की हीनभावना के चरलिेजुलिे विचारों
के कारण वालरीचक समाज का पतन हुआ है । शा्त्र में अनपढ़ वयसकर को शूद्र कहा गया है , दुराचारी को नहीं दुराचारी अररमी होता है , उसका कोई वर्ण नहीं होता । इसचलिये वह म्लेच्छ किलिाता है । इसचलिये मिथया थिोपी हुई हीन भावना का तयाग करें । रिाह्णादि वर्ण किसी वर्ग या समुदाय विशेर् की बपौती नहीं है । कोई भी वयसकर पढ़ चलिखकर अ्छिडे आचार को धारण कर इन पदों को प्रा्र कर सकता है । आवशयकता अपने अंदर ऐसे गुणों को उतपन्न करने की है ।
इसी संदर्भ में शुक्ाचार्य का भी ्पषट कथिन है कि इस संसार में जनर से कोई भी रिाह्ण , क्षत्रिय , वैशय , शूद्र या म्लेच्छ नहीं होता है । व्रुर : इन सबके भेद का कारण गुण-कर्म ही हैं ( शुक्नीतिसार 1 / 38 )। रिचर््म वालरीचक का जीवन , आचार और लिेखनी भी यही कहती है । अत : रिचर््म वालरीचक के आप सब अनुयायी भी किसी आचारवान , सुयोगय शा्त्रज् से ज्ान प्रा्र करें तो कोई कारण नहीं कि आपकी उन्नति न हो सके ।
42 vDVwcj & uoacj 2022